भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रेत : तीन चितराम / यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र'

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:08, 29 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(१.)
रेत नै ओढाई
लैरियैदार चूंदडी,
बगती पून।
लखायो समंदर
खुद रो घर छोड़ नै,
आय पूग्यो है मरुथळ मांय।

(२.)
बरस्यो सावण
रेत मैकी
सौंधी-सौंधी
चल्यो ममोलियो-
होळै-होळै
अचपळो टाबर उण नै
लियो हथेळी माथै
कैड़ो कंवळो है इण रो
मखमली परस
ममोलियो मिस कर लिनो।

(३.)
पाणी बरस्यो
रेत हुयगी ठंडी बरफ जैड़ी
एक अजगर सूतो हो-
रेतीली लहरां माथै।
ऐक खुसियो लुक्योड़ो-
झाड़ी मांय
मूंढागै मौत सूं डरूं फरूं बापड़ो।
पण बो नीं जाणै
अजगर हुवै बेजा आळसी।