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बांसुरी बज रही जंगलों में / रामनरेश पाठक
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बांसुरी बज रही जंगलों में
चांदनी में नहायी नहायी
पर्वतों में मधुर गूँज फैली
माधवी बन गयी मुग्ध राफा
नृत्यवंतिन पुलक-मधु लताएं
छन्द मूर्तित सपन की वलाका
रास का जागता है समंदर
अम्बपाली ठगी वन-जुन्हाई
बांसुरी बज रही जंगलों में
चांदनी में नहायी नहायी
तारिकाएँ तरलघन गगन की
चू पड़ीं फुनगियों-फुनगियों पर
गीत चंदन बने पीतवर्णी
मीड़ से फिर गमक, मूर्च्छना पर
शब्द आसव बने भागवत के
राधिका बन नटी खिलखिलायी
बांसुरी बज रही जंगलों में
चांदनी में नहायी नहायी
शून्य से उठ महाशून्य तक में
अप्सरा बन खिली है वनाली
गंधमाती अलस झूमती-सी
आदि गौरा बनीं कृष्ण काली
राग की सृष्टि की यह प्रतीका
क्वार की पूर्णिमा दपदपायी
बांसुरी बज रही जंगलों में
चांदनी में नहायी नहायी ।