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ताश-महल / चंद्रभूषण

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घने अंधेरे में उजाले का एक बुलबुला

हर तरफ से आती रंगीन रोशनियां

बीच में बैठे न जाने कितने लोग

शायद यहां कुछ नाटक सा हो रहा है


पहले गुलाम आया

पहने हुए ताश के गुलामों वाली पोशाक

मुनादी के से ढब में बोला-

दुग्गियां ही हैं यहां मुसीबतों की जड़

इधर-उधर देखा

फिर पास से भागती एक दुग्गी को

सिर से तोड़कर साग की तरह खा गया


किनारे खड़ी तिग्गियों ने इसपर ताली बजाई

नीम अंधेरे में दिख रहे थे

हिलते हुए उनके छोटे सिर और बड़े-बड़े कान


फिर रानी आई

नीचे निपट नंगी, ऊपर शाही ताम-झाम

वैसी ही मुनादी की सी आवाज में गाती हुई-

'पहनूंगी जी मैं भी अब तो नाड़े वाली शलवार'


पीछे-पीछे जोकर आया

एक हाथ में झुलाता हुआ नाड़ा

दूसरे में शलवार, जिसे सिला जाना बाकी था

जोकर के ही कंधे पर बैठा आया

'जंता... मेरी प्यारी-प्यारी जंता...'- चिल्लाता

दफ्ती का मुकुट पहने पगला राजा


दृश्य तभी अचानक बदल गया

सपाट जमीन पर मैंने जोकर को

अपनी तरफ झपटते देखा

हाथ में पकड़े नंगी पीली तलवार

पीछे से कोई बोला-

यह कुंठा की तलवार है,

जिससे बचना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है


कोशिश मैंने भरपूर की

छुपा खंभों और पर्दों की आड़ में

भीड़ में भनभनाहट थी-

जोकर से डर गया, देखो जोकर से डर गया

मैं सचमुच बहुत-बहुत डरा हुआ था


अब वह बिल्कुल मेरे सिर पर था

आंखों के सामने चमक रही थीं

चेहरे की काली-सफेद-लाल धारियां

बालों को छू रही थी लाल गोल नाक


फिर एक झपाटे में नीचे आई वह पीली तलवार

गर्दन के नीचे तिरछी भारी धारदार चोट...

डूबती चेतना में मैंने भीड़ की आवाज सुनी

'जोकर से...हा-हा-हा...डर गया...हो-हो-हो

देखो...मर गया...हे-हे-हे...जोकर के हाथों..'


भीड़ में दुःस्वप्न शाम का वक्त है

तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो


वहां एक भीड़ जमा हो रही है

तुरत-फुरत कुछ देख लेने के लिए

पंजों पर उचकते हुए लोग

तेजी से आगे बढ़ रहे हैं


पसीजे हुए उनके चेहरे

लैंप पोस्ट की रोशनी में

पीले नजर आ रहे हैं


तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो

और तुम्हें पता है कि

जिसे देखने वे सभी आ रहे हैं

वह तुम हो


जाने क्या सोचकर

तुम नजरें झुकाती हो

और पाती हो कि

एक सूत भी तुमपर नहीं है


दोनों हाथों से खुद को ढकती हुई

बीच चौराहे तुम बैठ जाती हो

....यह धरती ऐसे मौकों पर

कभी नहीं फटती


भीड़ में तुम

कोई परिचित चेहरा ढूंढ रही हो

लेकिन ये सभी तुम्हारे परिचित हैं

तुम्हें ही देखने आए हैं


वक्त बीत रहा है

लोग धीरे-धीरे बिखर रहे हैं

देखने को अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है


किसी रद्दी खिलौने सी

तुम दुबारा खड़ी होती हो

किसी से कहीं चले जाने का

रास्ता पूछती हो


...चकित होती हो यह देखकर कि

वह अब भी कनखियों से

तुम्हें देख रहा है


इतने सब के बाद भी

कोई भय तुममें बाकी है

बाकी है कहीं गहरा यह बोध

कि यह अंत नहीं है




अंधेरा गहरा रहा है

और तुम्हें कहीं जाना है

तेज-तेज तुम रास्ता पार कर रही हो

पीछे सभी तेज-तेज हंस रहे हैं





क्या इस सपने का कोई अंत है-

उचटी हुई नींद में तुम मुझसे पूछती हो

जवाब कुछ नहीं सूझता

....बेवजह हंसता हूं, सो जाता हूं।


शादी वाली फिल्में खुदा को हाजिर-नाजिर मानकर की गई शादियां जल्द ही खुदा को प्यारी होती हैं और वे, जो की जाती हैं अग्नि को साक्षी मानकर, कभी लाल चूनर को समिधा बनाती हुई तो कभी इसके बगैर ही सत्वर गति से होती हैं अग्नि को समर्पित।

इसके अलावा भी होती हैं शादियां गवाह जिनका दो दिलों के सिवाय कोई और नहीं होता मगर इससे भी सुनिश्चित नहीं होता उनका दीर्घजीवन एक कृपालु अमूर्तन की जगह वहां भी बहुत जल्द एक शैतान आ विराजता है।

लालच, कुंठा और ईर्ष्या के महासागर में एक-दूसरे से टकराती तैरती हैं शादियां पर्त दर पर्त खालीपन के भंवर में नाचते हुए घूमते हैं पर्त दर पर्त खालीपन फिर भी मजा यह कि शादी के वीडियो जैसी बंबइया फिल्में हर बार हिट ही हुई जाती हैं।

क्यों न हों- कहते हैं गुनीजन- यही है हमारा सामूहिक अवचेतन, क्योंकि सबकुछ के बावजूद शादी ही तो है मानव-सृष्टि की इकाई रचने का अकेला वैध उपाय- बाकी जो कुछ भी है, लड़कपन का खेल है।

सत्य वचन पर कुछ-कुछ वैसा ही, जैसे- एटमबम ही है विश्व को सर्वनाश से बचाने का अकेला वैध उपाय बाकी जो कुछ भी है, कमजोरों की बकवास है।



एक खबर का ब्योरा बच्चे हर बार दिल लेकर पैदा होते हैं और कभी-कभी उनके दिल में एक बड़ा छेद हुआ करता है जिसमें डूबता जाता है पैसा-रुपया, कपड़ा-लत्ता, गहना-गुरिया, पीएफ-पेंशन फिर भी छेद यह भरने को नहीं आता।

तब बजट आने से दो रात पहले एक ही जैसे दिखते दर्जन भर अर्थशास्त्री जब अलग-अलग चैनलों पर शिक्षा चिकित्सा जैसे वाहियात खर्चों में कटौती का सुझाव सरकार को देकर सोने जा चुके होते हैं- ऐसे ही किसी बच्चे की मां खुद उस छेद में कूदकर उसे भर देने के बारे में सोचती है।

रात साढ़े बारह बजे उल्लू के हाहाकार से बेखबर किसी जीवित प्रेत की तरह वह उठती है और सोए बीमार बच्चे का सम पर चढ़ता-उतरता गला उतनी ही मशक्कत से घोंट डालती है जितने जतन से कोई सत्रह साल पहले तजुर्बेकार औरतों ने उसे उसकी अपनी देह से निकाला था।

गले में बंधी जॉर्जेट की पुरानी साड़ी के सहारे निखालिस पेटीकोट में पंखे से लटका एक मृत शरीर के बगल में तीन रात दो दिन धीरे-धीरे झूलता उस स्त्री का वीभत्स शव किसी ध्यानाकर्षण की अपेक्षा नहीं रखता।

आनंद से अफराए समाज में दुख से अकुलाई दो जिंदगियां ही बेमानी थीं फिर रफ्ता-रफ्ता असह्य हो चली बदबू के सिवाय बंद कमरे में पड़ी दो लाशों से किसी को भला क्या फर्क पड़ना था।

अलबत्ता अपने अखबार की बात और है यह तो न जाने किस चीज का कैसा छेद है कि हर रोज लाखों शब्दों से भरे जाने के बावजूद दिल के उसी छेद की तरह भरना ही नहीं जानता।

शहर में नहीं, साहित्य में नहीं, संसद में तो बिल्कुल नहीं पर ऐसे नीरस किस्सों के लिए यहां अब भी थोड़ी जगह निकल आती है- 'पृष्ठ एक का बाकी' के बीच पृष्ठ दो पर या जिस दिन बिजनेस या खेल की खबरें पड़ जाएं उस दिन नीचे पृष्ठ नौ या ग्यारह पर

....ताकि दुपहर के आलस में तमाम मरी हुई खबरों के साथ इन्हें भी पढ़ ही डालें पेंशनयाफ्ता लोग और बीपी की गोली खाकर सो रहें।


खुशी का समय खुश रहो, खुशी का समय है शाम को दफ्तर से घर लौटो तो खुशी की कोई न कोई खबर तुम्हारा इंतजार कर रही होती है।

तुम्हारे साढ़ू ने बंगला डाल लिया एनजीओ में काम कर रही तुम्हारी सलहज रात की फ्लाइट से अमरीका निकल रही है पड़ोस के पिंटू ने लाख रुपये में इन्फोसिस पकड़ ली शर्मा जी को मिल गया इतना इन्क्रीमेंट जितनी तुम्हारी कुल तनखा भी नहीं है।

बेहतर होगा, इसी खुशी में झूमते हुए उठो और निकल लो किसी दोस्त के घर वहां वह अपना कल ही जमाया गया होम थियेटर रिमोट घुमा-घुमाकर दिखाता है फिर महीना भर पहले ली हुई लंबी गाड़ी में थोड़ी दूर घुमा लाने की पेशकश करता है लौटकर उसके साथ चाय पीने बैठो तो लगता है कृष्ण के दर पर बैठे सुदामा तंडुल नहीं धान चबा रहे हैं।

छुट्टियों के नाम पर झिकझिक से बचने किसी रिश्तेदारी में चले जाओ तो लोगबाग हाल-चाल बाद में पगार पहले पूछते हैं सही बताओ तो च्च..च्च करते हैं बढ़ाकर बताओ तो ऐसे सोंठ हो जाते हैं कि पल भर रुकने का दिल नहीं करता।

दरवाजे पर खड़े कार धुलवाते मोहल्ले के किसी अनजान आदमी को भी भूले से नमस्ते कर दो तो छूटते ही कहता है- भाई साहब, अब आप भी ले ही डालो थोड़ी अकड़ जुटाकर कहो कि क्यों खरीदूं कार जब काम मेरा स्कूटर से चल जाता है तो खुशी से मुस्कुराते हुए कहता है- हां जी, हर काम औकात देखकर ही करना चाहिए।

...और औकात दिखाने के लिए उतनी ही खुशी में ईंटा उठाकर उसकी गाड़ी के अगले शीशे पर दे मारो तो पहले थाने फिर पागलखाने पहुंचने का इंतजाम पक्का।

खुशी का समय है लेकिन तभी तक, जब अपनी खुशी का न कुछ करो न कुछ कहो मर्जी का कुछ भी निकल जाए मुंह से तो लोग कहते हैं- अच्छे-भले आदमी हो खुशी के मौके पर ऐसी सिड़ी बातें क्यों करते हो?



चैटरूम में रोना दूर देस में बहुत दूर वह सुंदर घर था पैसा था, पैसे से आई चीजें थीं थे जीवन के सारे उजियारे सरंजाम फिर वहीं कहीं कुछ कौंधा अजब बिजूखा सा

खाली घर में कोई खुद से खुद-बुद खुद-बुद बोल रहा था आईने में पीठ एक थरथरा रही थी

फिर जैसे युगों-युगों तक ख़ला में गूंजती हुई खुद तक लौटी हो खुद की आवाज तनहाई के घटाटोप में मैंने उसको सचमुच बातें करते देखा

कुछ इंचों के चैटरूम में लिखावट की सतरों बीच उभर रहा था बेचेहरा बेनाम कोई चारासाज़..कोई ग़मगुसार..

सुख सागर में संचित दुख कहीं कोई था जो पढ़ रहा था चुप-चुप रो रही थी मीरा दुःख उसका मेरे सिर चढ़ रहा था

ठीक इसी वक्त मेरे चौगिर्द बननी शुरू हुई एक और दुनिया ..और सुबह..और शाम ..और पेड़..और पत्ते ..और पंछी..और ही उनकी चहक

देखा मैंने चौंककर वही घर वही दफ्तर वही चेहरे वही रिश्ते वही दर्पन वही मन बीत गया पल में कैसे वही-वही पन?

होली का दिन था चढ़ा था सुबह से ही जाबड़ नशा भांग का मगन थे लोग त्योहार के रंग में ..सबके बीच अकेला मगर मैं रो रहा था

जाने कितने मोड़ मुड़कर खत्म हुई कहानी बीत गई जाने कब परदेसी फिल्म फंसा रहा मगर मैं उसी दुनिया में दूर-दूर जिसका कहीं पता भी नहीं था