एक ख़बर का ब्योरा / चंद्रभूषण
बच्चे हर बार दिल लेकर पैदा होते हैं
और कभी-कभी उनके दिल में
एक बड़ा छेद हुआ करता है
जिसमें डूबता जाता है
पैसा-रुपया, कपड़ा-लत्ता,
गहना-गुरिया, पी.एफ.-पेंशन
फिर भी छेद यह भरने को नहीं आता।
तब बजट आने से दो रात पहले
एक ही जैसे दिखते दर्जन भर अर्थशास्त्री
जब अलग-अलग चैनलों पर
शिक्षा, चिकित्सा जैसे वाहियात ख़र्चों में
कटौती का सुझाव सरकार को देकर
सोने जा चुके होते हैं--
ऐसे ही किसी बच्चे की मां
ख़ुद उस छेद में कूदकर
उसे भर देने के बारे में सोचती है।
रात साढ़े बारह बजे
उल्लू के हाहाकार से बेख़बर
किसी जीवित प्रेत की तरह वह उठती है
और सोए बीमार बच्चे का
सम पर चढ़ता-उतरता गला
उतनी ही मशक्कत से घोंट डालती है
जितने जतन से कोई सत्रह साल पहले
तजुर्बेकार औरतों ने उसे
उसकी अपनी देह से निकाला था।
गले में बंधी जॉर्जेट की पुरानी साड़ी के सहारे
निखालिस पेटीकोट में पंखे से लटका
एक मृत शरीर के बगल में
तीन रात दो दिन धीरे-धीरे झूलता
उस स्त्री का वीभत्स शव
किसी ध्यानाकर्षण की अपेक्षा नहीं रखता।
आनंद से अफराए समाज में
दुख से अकुलाई दो ज़िदगियां ही बेमानी थीं
फिर रफ़्ता-रफ़्ता असह्य हो चली बदबू के सिवाय
बंद कमरे में पड़ी दो लाशों से
किसी को भला क्या फर्क पड़ना था।
अलबत्ता अपने अख़बार की बात और है
यह तो न जाने किस चीज़ का कैसा छेद है
कि हर रोज़ लाखों शब्दों से भरे जाने के बावजूद
दिल के उसी छेद की तरह भरना ही नहीं जानता।
शहर में नहीं, साहित्य में नहीं,
संसद में तो बिल्कुल नहीं
पर ऐसे नीरस किस्सों के लिए
यहां अब भी थोड़ी जगह निकल आती है-
'पृष्ठ एक का बाकी' के बीच पृष्ठ दो पर
या जिस दिन बिजनेस या खेल की ख़बरें पड़ जाएं
उस दिन नीचे पृष्ठ नौ या ग्यारह पर
....ताकि दुपहर के आलस में
तमाम मरी हुई ख़बरों के साथ
इन्हें भी पढ़ ही डालें पेंशनयाफ्ता लोग
और बी.पी. की गोली खाकर सो रहें।