भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सामने ग़म की रहगुज़र आई / मख़्मूर सईदी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:16, 15 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मख़्मूर सईदी }} सामने ग़म की रहगुज़र आई दूर तक रोशनी नज...)
सामने ग़म की रहगुज़र आई
दूर तक रोशनी नज़र आई
परबतों पर रुके रहे बादल
वादियों में नदी उतर आई
दूरियों की कसक बढ़ाने को
साअते-क़ुर्ब मख़्तसर आई
दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई
मुझ को कब शौक़े-शहरगर्दी थी
ख़ुद गली चल के मेरे घर आई
आज क्यूँ आईने में शक्ल अपनी
अजनबी-अजनबी नज़र आई
हम की 'मख़्मूर' सुबह तक जागे
एक आहट की रात भर आई
शब्दार्थ :
साअते-क़ुर्ब=सामीप्य का लक्षण; मुख़्तसर=संक्षिप्त; शौक़े-शहरगर्दी=नगर में घूमने का शौक़।