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जीवन भनूँ त घात छ / दिनेश अधिकारी

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जीवन भनूँ त घात छ
मृत्यु भनूँ त सास छ
दोधारमा बाँचूँ कति ?
हरगीतमा चित्कार छ

न बास छ, न आश छ
मान्छेहरूकै त्रास छ
जहाँ म खोज्छु उठूँ भनेर
त्यहीँ असारे भास छ

अँध्यारो छ, ओह्रालो छ
खेद्नेहरूकै लाम छ
चर्किसके चाहना सबै
दुख्ने मुटुचाहिँ बाँकी छ