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दुनिया चाहे जो भी कह ले / अमरेन्द्र
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दुनिया चाहे जो भी कह ले
मेरे मीत, सभी कुछ सह ले।
प्रेम, गगन का मेघ नहीं है
जिसको हवा उड़ाती जाए
बीच नदी की नाव भी नहीं
लहरें जिसे बहाती जाए
यह तो मेरू, भूमि पर पर्वत
कैसे तूफानों से दहले।
शिशिर-धूप-सा खिला प्रेम यह
जहाँ-जहाँ जगवाले पाते
गीली लकड़ी जले जिस तरह
ये भी वैसे वहाँ धुआँते
आज हुआ हो, बात नहीं यह
यही हुआ है इससे पहले।
गिनती शुभ-लाभों की क्या हो
क्या पल-पल का शगुन विचारें
विजन बने इस शून्य प्रान्त में
आओ पपीहा बने पुकारें।
जीवन अगहन-चैत हुआ है
मन की बात कहो, सब कह ले !