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बैरी को भी साथी पाऊँ / अमरेन्द्र

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बैरी को भी साथी पाऊँ
सबका साथ निभाता जाऊँ।

जो भी मिला भला-सा पाया
क्या करता मैं, गले लगाया
प्यार को बोलूँ कैसे नफरत
मुझमें कहीं नहीं ये आदत
किसके मन में छुपा हुआ क्या
मैं क्यों सोचूं, क्यों दुख पाऊँ।

मैंने सबको यही दिया है
कही पे पाती, कहीं पिया है
जेठ भी जो चलकर के आया
मैंने दी चन्दन की छाया
कोई भी मौसम हो क्यों न
मैं पंचम सुर मंे ही गाऊँ ।

जब मैं फूल बना तो तय है
शूलों-धूलों में ही क्षय है
मेरा मन है, मेरा दिल है
बिन माँगे सबको दे दूँगा
यह न होगा व्यर्थ गवाऊँ।