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आज सूली सेज लागे / अमरेन्द्र

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आज उसकी याद आई
आज सूली सेज लागे।

घुल रही जूही की है खुशबू हवा में
क्यों अचानक उठ गए बाजू हवा में
रंग गया तन ही नहीं, मन-प्राण तक हैं
सुधि, शिशिर की धूप-सी अब
चैत का रंगरेज लागे।

चेतना में गुदगुदी-सी हो रही है
प्यास बढ़ कर इक नदी-सी हो रही है
है अलस तन, है अलस मन, पाण अलसे
सुधि, सुरा महुआ की जैसे
उससे भी बढ़ तेज लागे।

चाहता रस, रूप, गन्धों को नचाऊँ
गा उठे तो, मैं भी उसके संग गाऊँ
व्योम में विचरूँ, दिए गलबाँही थिरकूँ
आज जग के नियम-नीति
से बड़ा परहेज लागे।