भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपने में मत आओ / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 11 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=मन गो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपने में मत आओ सपना तो बस छल है
परछाँही भी उभर न पाती यमुना जल है।

मेरे मीत पुकारूँ तुमको मैं जग-जग कर
चलते-चलते कलयुग तक आया है द्वापर
एक मिलन ही मेरे चंचल मन का हल है।

छाया के पीछेे से कैसा मिलन तुम्हारा
सोख रहा है गंगा जल को मरूथल सारा
पूनम पर ये पुता हुआ कैसा काजल है।

तुम आओ, आँखांे से देखूँ, प्यार करूँ मैं
कब तक अनदेखी छवि का शृंगार करूँ मैं
प्यार मेरा जल-जल पलता है, दुर्वा दल है।