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जैसा देखा आज, तुम्हें मैं / अमरेन्द्र

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जैसा देखा आज, तुम्हें मैं क्या बतलाऊँ
मन में आता, सबको जाकर रूप सुनाऊँ।

कहूँ सभी से धरती पर सपना उतरा था
रेशम की साड़ी पर पीला रंग गहरा था
आगे-पीछे लाखों फूलों का पहरा था
कौन मगर मेरी बातों पर पतियायेगा
क्यों न बाँधू गीतों में, फिर उसको गाऊँ।

कैसे बाँधू रूप, सोच में पड़ जाता हँू
शब्दों की शक्ति से आगे बढ़ जाता हूँ
फिर भी जाता हार, लाज से गड़ जाता हूँ
कवि होकर जो कहना चाहूँ, कह न पाऊँ।

बाँध रहा हूँ, युग से तेरे रूप-कमल को
लेकिन कैसे गीतकार कह सके गजल को
अक्षर के हीरे पर देखूँ ताजमहल को
तुमको तो पाना ही मुश्किल, बहुत कठिन है
परछाईं के रूप-परस से जो बहलाऊँ।