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सजनी कुछ देर ठहर / अमरेन्द्र
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सजनी कुछ देर ठहर
बाकी है, रात-पहर।
ताजा है गन्ध अभी
रातरानी फूलों की
बिखरी भी लाली है
वासन्ती भूलों की
अब हैं अद्वैत हुए
अब तक थे द्वैत, अधर।
नींद नहीं खुलती है
खोए, इन बाँहों में
कैसा यह जादू है
तेरी इन चाहों में
मूर्छित ही रहने दो
घुलने दो और जहर।
प्राणों का रस मैंने
जाना न अब तक है
हार मेरे जीवन की
लम्बी कथानक है
जीत मुझे जाने दो
जीवन का एक समर।