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प्राणों में बजता है मादल / अमरेन्द्र

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प्राणों में बजता है मादल
आओ, तुम्हें लगा दूँ काजल।

फिर सूने-सूने-से नभ में
बादल आए कजरारे हैं
फिर पपीहा की चीखें गूँजी
मोर सुनाए मल्हारे हैं

जी चाहे मुरली पर गाऊँ
पहले तुम्हें पिन्हा दूँ पायल।

मन का मानसरोवर दुधिया
इच्छाओं की लाली बरसे
इसे देखने रोम-रोम सब
निकल पड़े हैं अपने घर से

पहली बार तुम्हें देखा है
जैसे खिला हुआ है शतदल।

तुम्हें साथ पा कर यह पाया
तलहत्थी पर इन्द्रधनुष हो
फूलांे की घाटी में बैठा
एक पथिक जी भर कर खुश हो

मन को क्या यह आज हुआ है
इतना क्यों है विह्वल, पागल।

जब तन का आकाश न होगा
मेघ, पपीहा, मोर कहाँ फिर
मन का मानसरोवर सूखा
कोयल का यह शोर कहाँ फिर

आओ मिल कर रोकें सावन
मिल कर रोकें जाते बादल।