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कुम्भ की अर्चा / रामनरेश पाठक

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स्वागत कवि,
दीपित रवि, प्रभा पूर्ण.
सृष्टि के दिव्य सौन्दर्य के गायक तुम
स्नेह, ज्ञान, करुणा के अग्रदूत, दिव्यदूत,
नमस्कार, सौ-सौ बार नमस्कार
देखो तुम रक्त सने चीवर को
हा.......हा.......हा........

इतने में आहत दृष्टि !
दीर्घ मलिन छंदों में निस्पंदित
देखने लगी बस दूसरी ओर ओर....ओर
मेरी ही छाया में
दैत्य कई अट्टहास करते हैं,
छाता जो तेरी मधु-विणा पर,
भरता है वन्या को
हा.......हा.......हा........

तेरा वह मर्म मधुर डूब रहा चीखों में
हेर रहे अर्चा को, पूजा को, वंदना को,
गंगा की फेनिल तरंगों पर
यमुना की मदिरिल उमंगों पर
धारा में पावन सरस्वती की !!!
पीछे, दबे, मरे, फाटे, टूटे से, अधकुचले
मरे अधमरे
सहस्त्रों बेटे-बेटी मनु के
भ्रम की मधु ज्वाला में
होम रहे जीवन के क्षत शतदल !!!

अंतर सुलगता है सिकता का,
दिग्बधुओं का आँचल गीला है,
मर्मर स्वर माँग रहे मृत्यु की भिक्षा,
माताएं देख रहीं पिंड बने बेटों को,
कुलबधुयें देख रहीं अपने भुज-बेटे को,
बहन भैया, भाई कह दीदी
अतीत बना जाता है,
अस्थि, मांस, शेष देह
प्राण गए पुण्य-बल सदेह स्वर्ग,
धरा यहीं छूट गयी !!!
शेष या अशेष दुर्वह चीत्कार
हुआ जन-जन का अलंकार !!!

कवि !
मृत्यु का रास है,
वेणु के छंदों का मधुरिम वितान है,
टुक विलमों, देखो,
रक्तांजलि भर दूर कहाँ संध्या खड़ी है एकाकिनी
जहाँ-जहाँ धरती पर लोट रहा
कुंठित श्रृंगार गीत,
गीतों का नव-विधान
भुकभुक ही करता है मानव का चंचल-दीप,
दारुण क्रंदन निनाद
छाया विषाद की चारों ओर मधुरिम है,
देखो, टुक एक बार,
छल-छल ले अश्रुधार,
धरती वेदना लोक में नमित है
करुणा-सी माया-सी
आरंजित कण-कण है, घिरी अमा
क्षमा... क्षमा... कवि क्षमा... क्षमा...
दिग-दिगंत जड़ उदास,
झुका आज केतु मानवता का,
काल का सजता है रथ,
हँसता है मरघट,
पनघट रोता है.

गायक !
लो वंशी में मधु निक्वाण !
मानवता मूर्छित है,
ध्वंस के तट पर कराह भरी
स्वयं क्रूरता ने अपने कोड़ में कसा
आज करुणा का शिशु शावक
छेड़ो शिव-तान, फूटेगा,
गाएगी बंसी अब
हा.......हा.......हा........

मुस्काएगी पद्मा फिर-फिर से
दृग जल पर, निखरेगा मधु अग-जग!
स्वागत, कवि
दीपित रवि प्रभापूर्ण!
दिव्य गायक, नमस्कार
सौ-सौ बार नमस्कार !