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ताजमहल / संजय चतुर्वेदी

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कैसा वो दौर था किस दौर का निज़ाम था वो
सिर्फ़ शाहों को मोहब्बत का शऊर आता था
हाथ कितनों के गए दर्ज है कहाँ हैबत
क़ातिलों को भी शराफ़त का शऊर आता था

हुस्न रौशन है दरक्शाँ है तमद्दुन उसकी
ख़ून-आलूदा है सन्नाई का असर सारा
क्यों न कुर्बान हो अय्याश हुक़्मरानों पे
सारा सरमाया सभी लोग और हुनर सारा

क्यों न ज़िन्दा रहे वो दौर रोज़-ए-महशर तक
जिसकी ताईद करे सारा ज़माना हर दम
कैसे बदले वो हवा ज़ुल्म के सरमाए की
जिसकी उम्मीद करे सारा ज़माना हर दम

आज भी दौर वही आज भी निज़ाम वही
हम नहीं बदले न दिन बदले न रातें बदलीं
ख़ून-आलूदा है सन्नाई हुनर बेबस है
ना तो सुल्तान न तहज़ीब की बातें बदलीं

(1979)