भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने हिस्से का दरख़्त / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:04, 27 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना कुमारी |अनुवादक= |संग्रह=प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सब समेट ले जाऊंगी
किसी दिन
फिर बस्तियां पूछेंगी पता मेरा
तुम्हारे खाते में जमा कर रही हूं
अपने हिस्से का दरख्त
जब जब जलेंगे पांव
मैं छांव लेने आऊंगी
रास्तों पर बिना निशान छोड़े
आस के बिखरे पत्ते
आवाज नहीं करते कभी
हवाओं का रुख कर लेते हैं
और दिशाएं सनसना कर
चिरनिद्रा की शान्ति ओढ़ लेती है।