भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्थर और देवता / अर्चना कुमारी

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:23, 27 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना कुमारी |अनुवादक= |संग्रह=प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ढलती रातों के सिरहाने
पुराने वक्त का तकिया
उतना बुरा नहीं होता

नये वक्त का लिहाफ
मखमली लिबास में
कैक्टस की चुभन देगा
संभावना प्रबल रहती है ऐसी

सेमल की रुई का विकल्प
इनदिनों पालिस्टर रुई बन गयी हैं
और नींद के सरदर्द की दवा
नामालूम सी है

ऐसे उल्टे उदास और विरल समय में
मैं बुन रही हूं गीत
जिसके शब्द, संगीत, सुर लय और ताल
सब मैं ही हूं

तुम्हारे तुम का समावेश
मेरे मैं में
अवशोषण के दौर में है
परावर्तन रोक दिया है स्वयं का इन दिनों

खारे हो चुके समंदर के लिए
नदी का समर्पण
पुरानी बात है

मीठा होना होगा नमक को
और पहाड़ को उतरना होगा नदी के लिए
यूं तो कहे जाते रहेंगे किस्से

नकार दिया है प्रेम ने
विशिष्ट से अवशिष्ट होना
पत्थर के देश में
कोई देवता नहीं होता...।