दो हिस्से / नीलेश रघुवंशी
1. आत्मकथ्य
मेरे प्राण मेरी कमीज़ के बाहर
आधी उधड़ चुकी जेब में लटके हैं
मेरी जेब में उसका फ़ोटो है
रौंपा जा रहा है जिसके दिल में
फूल विस्मरण का।
झूठ फरेबी चार सौ बीसी
जाने कितने मामले दर्ज हैं मेरे ऊपर
इस भ्रष्ट और अन्धे तन्त्र से
लड़ने का कारगर हथियार नहीं मेरे पास
घृणा आततायी को जन्म देती है
आततायी निरंकुशता को
प्रेम किसको जन्म देता है?
अपना सूखा कण्ठ लिए
रोता हूँ फूट फूटकर
मेरी जेब में तुम्हारा फ़ोटो है
कर गए चस्पा उसी पर
नोटिस ग़ुमशुदा की तलाश का।
2. एक बूढ़ी औरत का बयान
“मथुरा की परकम्मा करने गए थे हम
वहीं रेलवे स्टेशन पे भैया .....
रोओ मत
पहले बात पूरी करो फिर रोना जी भर के।
“साब भीड़ में हाथ छूट गए हमारे
पूरे दो दिन स्टेशन पर बैठी रही
मनो वे नहीं मिले
ढूँढ़त-ढूँढ़त आँखें पथरा गई भैया मेरी
अब आप ही कुछ दया करम करो बाबूजी’’
दो चार दिन और इन्तज़ार करो बाई
आ जाएँगे ख़ुद ब ख़ुद।
“नहीं आ पाएँगे बेटा वे
पूरो एक महीना और पन्द्रह दिन हो गए
वे सुन नहीं पाते और
दिखता भी नहीं उन्हें अच्छे से’’
बुढ़ापे में चैन से बैठते नहीं बनता घर में
जाओ और करो परकम्मा
कहाँ की रहने वाली हो?
“अशोक नगर के।’’
घर में और कोई नहीं है क्या?
“हैं। नाती पोता सब हैं भैया’’
फिर तुम अकेली क्यों आती हो?
लड़कों को भेजना चाहिए था न रिपोर्ट लिखाने।
‘‘वे नहीं आ रहे, न वे ढूँढ़ रहे
कहते हैं
तुम्हीं गुमा के आई हो सो तुम्हीं ढूँढ़ो।
लाल सुर्ख साड़ी में एकदम जवान
दद्दा के साथ कितनी ख़ूबसूरत बूढ़ी औरत
उसी फोटो पर चस्पा
नोटिस गुमशुदा की तलाश का।