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ऊँची ज़ात / लालसिंह दिल / सत्यपाल सहगल
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ऊँची ज़ात का लड़का औ' नीची ज़ात की कुड़ी।
यह कहाँ की दयानतदारी, यह कहाँ की कला।
सहमत हो जाते सब इकट्ठे करते हला-हला।
वह होवे तो लिखेंकिताबें इसको ज़हर की पुड़ी।
ग़र नीची ज़ात का लड़का औ ऊँची ज़ात की कुड़ी।
सयाने बनिये इश्क़ न करिए जो चाहते हैं भला।
बिना आज़ादी भूखे मन के भरते नहीं खला।
मुँह से जमते राम-राम औ' बगल में रखते छुरी।
दो दिल न हो जाएँ इकट्ठे नित पंचायत जुड़ी।
वैसे ही न जीने देते पापी लगे इश्क़ बला।