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हामार सुनीं / रमाकांत द्विवेदी 'रमता'

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काहे फरके-फरके बानीं, रउरो आईं जी।
हामार सुनीं, कुछ अपनो सुनाईं जी।

जब हम करींले पुकार, राउर खुले ना केवाँर,
एकर कारन का बा, आईं समुझाईं जी।

जइसन फेर में बानी हम, ओहले रउरो नइखीं कम,
कवनो निकले के जुगुति बताईं जी।

सोचीं, कइसन बा ई राज, कुछ त रउरो बा अन्दाज,
देहबि कहिया ले एह राज के दोहाई जी।

जवन साँसत अबहीं होता, का-का भोगिहें नाती-पोता,
एह पर रउरो तनि गौर फरमाईं जी।

अब मत फरके-फरके रहीं, सब कुछ संगे-संगे सहीं,
संगे-संगे करीं बचे के उपाई जी।

सभे आइल, रउरो आईं, संगे रोईं-संगे गाईं,
हम त रउरे हईं, रउरा हमार भाई जी।
 
रचनाकाल : 18.2.1984