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त हम का करीं / रमाकांत द्विवेदी 'रमता'

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क्रान्ति के रागिनी हम त गइबे करब,
केहू का ना सोहाला त हम का करीं।
लाल झण्डा हवा में उड़इबे करब,
केहू जरिके बुताला त हम का करीं।।

केहू दिन-रात खटलो प’ भूखे मरे,
केहू बइठल मलाई से नाष्ता करे,
केहू टुटही मड़इया में दिन काटता,
केहू कोठा-अटारी में जलसा करे।

ई ना बरम्हा के टाँकी ह तकदीर में,
ई त बैमान-धूर्तन के करसाज ह,
हम ढकोसला के परदा उठइबे करब,
केहू फजिहत हो जाला त हम का करीं।

ह ई मालिक ना, जालिम जमींदार ह,
खून सोखा ह, लम्पट ह, हत्यार ह,
ह ई समराजी पूँजी के देशी दलाल,
टाटा-बिड़ला ह, बड़का पूँजीदार ह।

ह ई इन्हने के कुकुर वफादार ह,
देश बेचू ह, सांसद ह, सरकार ह,
सबके अँगुरी देखा के चिन्हइबे करब,
केहू सकदम हो जाला त हम का करीं।

सौ में पँचानबे लोग दुख भोगता
सौ में पांचे सब जिनिगी के सुख भोगता
ओही पाँचे के हक में पुलिस-फौज बा
दिल्ली-पटना से हाकिम-हुकुम होखता।

ओही पाँचे के चलती बा एह राज में,
ऊहे सबके तरक्की के राह रोकता,
ऊहे दुश्मन ह, डँका बजइबे करब,
केहू का धड़का समाला त हम का करीं।

रचनाकाल : 30.01.1983