भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जरि गइल ख्‍वाब भाई जी / विजेन्द्र अनिल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:59, 14 सितम्बर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रउरा सासन के ना बड़ुए जवाब भाईजी,
रउरा कुरूसी से झरेला गुलाब भाई जी

रउरा भोंभा लेके सगरे आवाज करींला,
हमरा मुंहवा पर डलले बानी जाब भाई जी

हमरा झोपड़ी में मटियों के तेल नइखे,
रउरा कोठिया में बरे मेहताब भाई जी

हमरा सतुआ मोहाल, नइखे कफन के ठेकान,
रउआ चाभीं रोज मुरूगा-कवाब भाई जी

रउरा छंवड़ा त पढ़ेला बेलाइत जाइ के
हमरा छंवड़ा के मिले ना किताब भाई जी

रउरा बुढिया के गालवा प क्रीम लागेला,
हमरा नयकी के जरि गइल ख्‍वाब भाई जी

रउरा कनखी पर थाना अउर जेहल नाचेला,
हमरा मुअला प होला ना हिसाब भाई जी

चाहे दंगा करवाईं, चाहे गोली चलवाईं,
देसभक्‍तवा के मिलल बा खिताब भाई जी

ई ह कइसन लोकशाही, लड़े जनता से सिपाही,
केहू मरे, केहू ढारेला सराब भाई जी

अब ना सहब अत्‍याचार, बनी हमरो सरकार,
नाहीं सहब अब राउर कवनो दाब भाई जी

चाहे हथकड़ी लगाईं, चाहे गोली से उड़ाईं
हम त पढ़ब अब ललकी किताब भाई जी

रचनाकाल : 23.8.1979