भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्यों नहीं / सुरेन्द्र रघुवंशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:18, 14 सितम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेन्द्र रघुवंशी |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

महोदय आपके आने के निर्धारित समय से
एक घण्टा पहले ही लोग आ गए सभा-स्थल पर
हालाँकि आप आए समय से भी दो घण्टे लेट
पर जनता थी कि डटी रही
प्यास के रेगिस्तान में पसीने में नहाती हुई

तुम दिल्ली से चलते हो वे आसमान में तुम्हें ढूँढ़ते हैं
तुम्हारा हेलिकॉप्टर जब लैण्ड करता है
उनके दुर्भाग्य के पठार पर
तब धूल और कँकड़ों का गुबार
जनता अपनी आँखों में आमन्त्रित करती है
अन्धे होने की जोख़िम उठाते हुए

तुम एक कदम उनकी ओर बढ़ाते हो
वे तुम्हारी एक झलक पाने के लिए
भीड़ में कुचलकर मारे जाने से नहीं डरते
तुम्हारे सम्मोहन में पागल होकर
वे गला फाड़ने की हद तक तुम्हारी जयकार करते हैं
बूढ़े तक लोट जाते हैं तुम्हारे चरणों में

तुम हाथ हिलाकर अभिवादन करते हो
वे तुम्हारे यशगान से आकाश को भर देते हैं
तुम हल्का सा मुस्कुराते हो मँच से
वे कहते हैं दयालुता की पराकाष्ठा है ये

तुम मँच से वादों की बरसात करते हो
वे विश्वास की नदी बहा देते हैं
तुम फिर लौट जाते हो फिर सत्ता में
हर बार की तरह आसानी से
वे फिर रह जाते हैं अभावों के रेगिस्तान में
समय के सूरज से मोम की तरह पिघलने हेतु

मौसम हैरान है यह दृश्य बार-बार देखकर
कि इस रेगिस्तान में क्यों नहीं चली विरोध की आन्धी?
क्यों नहीं उगे विद्रोह के असंख्य कंटीले मज़बूत झाड़?