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इज़्ज़तपुरम्-35 / डी. एम. मिश्र
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निर्बल-निष्क्रिय
खेाखला जिस्म
पुरूष का
जैसे दीमक
खाता हल
बिना फार का
पेटू-नामर्द-कापुरूष
रोज-रोज के तानों
और विषबुझे बाणों से
घायल करमू
बिस्तर पर
पड़ा-पड़ा
सोचता है
आर्द्र लकड़ी
आग के स्पर्श में भी
धुँए ही उगले
और तरसे
जीवन के ताप को