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इज़्ज़तपुरम्-44 / डी. एम. मिश्र
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मर गयीं कलायें
चले गये कद्रदान
घुँघरूओं के बोल पर
रियासतें चढ़ जातीं
हवेलियाँ/लग्न-मण्डप
टूट-टूट पड़ते
बरसते
खूबसूरती पर
दौलत के ढेर
इमारतें बुंलंद थीं
खण्डहर अवशेष
सुन्दर-सुनहरी ईंटें
दब गयीं मलवे में
काँटों के पेड़ उगे
ठंडी सड़क
खोखली
बर्फीली
घुंध में