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हमरोॅ कवि आरो हम्में / गुरेश मोहन घोष

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कवि तांे सूरज बनोॅ जहाँ के,
बनी चनरमा हमंे चमकैबै।
दिन भर कमल खिलाबोॅ तोहीं,
रात कुमुदिनी हमें गमकैबै।

सूरज में गहनोॅ लागै छै,
तेजोॅ सें तुरते भागै छै।
चन्दा नै - गहनोॅ भागै छै,
जल्दी हम्मीं तों मुसकैवै

जों बदरी नें झाँपी लेथौं,
ठनका ठनकी डाँटी लेथौं,
नाखून कें घन चीरी चीरी-
मलका बनी हमें जग मलकैबै।

जों अमाबस आवी जैतै,
रात अन्हरिया पाबी जैतै,
बनी के तारा भगजोगनी भी-
राही रे! हमें राह झलकैवै।

कवि, धार दहु मँजधारोॅ केॅ,
तों टारी खोॅर पतारोॅ केॅ,
फेंकी दौ पतवारी दोनों-
हम्में सागर सें टकरैबै।

माँझी, हमें सागर के राही
तानोॅ पाल गुरक्खाा पर,
अंधर-झख्खर जे भी अैतै-
पीबी हम्में केवल जैबै।

झोॅर झपट्टा पट पट परतै,
कन-कन हावा सट-सट करतै,
खट-खट करतै दाँतोॅ तैय्या-
पालै सग चादर फलकैवै।

दुनियाँ सौंसे थक्की गेलै,
बैठी कूल-किनारा रोलै,
पार करै के आस नै कोनो-
वै लोरोॅ के लहर सजैबै।