मदर इंडिया / गीत चतुर्वेदी
उन दो औरतों के लिए जिन्होंने कुछ दिनों तक शहर को डुबो दिया था
दरवाज़ा खोलते ही झुलस जाएँ आप शर्म की गर्मास से
खड़े-खड़े ही गड़ जाएँ महीतल, उससे भी नीचे रसातल तक
फोड़ लें अपनी आँखें निकाल फेंके उस नालायक़ दृष्टि को
जो बेहयाई के नक्की अंधकार में उलझ-उलझ जाती है
या चुपचाप भीतर से ले आई जाए
कबाट के किसी कोने में फँसी इसी दिन का इंतज़ार करती
कोई पुरानी साबुत साड़ी जिसे भाभी बहन माँ या पत्नी ने
पहनने से नकार दिया हो
और उन्हें दी जाए जो खड़ी हैं दरवाज़े पर
माँस का वीभत्स लोथड़ा सालिम बिना किसी वस्त्र के
अपनी निर्लज्जता में सकुचाईं
जिन्हें भाभी माँ बहन या पत्नी मानने से नकार दिया गया हो
कौन हैं ये दो औरतें जो बग़ल में कोई पोटली दबा बहुधा निर्वस्त्र
भटकती हैं शहर की सड़क पर बाहोश
मुरदार मन से खींचती हैं हमारे समय का चीर
और पूरी जमात को शर्म की आँजुर में डुबो देती हैं
ये चलती हैं सड़क पर तो वे लड़के क्यों नहीं बजाते सीटी
जिनके लिए अभिनेत्रियों को यौवन गदराया है
महिलाएँ क्यों ज़मीन फोड़ने लगती हैं
लगातार गालियां देते दुकानदार काउंटर के नीचे झुक कुछ ढूंढ़ने लगते हैं
और वह कौन होता है जो कलेजा ग़र्क़ कर देने वाले इस दलदल पर चल
फिर उन्हें ओढ़ा आता है कोई चादर परदा या दुपट्टे का टुकड़ा
ये पूरी तरह खुली हैं खुलेपन का स्वागत करते वक़्त में
ये उम्र में इतनी कम भी नहीं, इतनी ज़्यादा भी नहीं
ये कौन-सी महिलाएं हैं जिनके लिए गहना नहीं हया
ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज़ कपड़ा
ये पहनने को मांगती हैं पहना दो तो उतार फेंकती हैं
कैसा मूडी कि़स्म का है इनका मेटाफिजिक्स
इन्हें कोई वास्ता नहीं कपड़ों से
फिर क्यों अचानक किसी के दरवाज़े को कर देती हैं पानी-पानी
ये कहां खोल आती हैं अपनी अंगिया-चनिया
इन्हें कम पड़ता है जो मिलता है
जो मिलता है कम क्यों होता है
लाज का व्यवसाय है मन मैल का मंदिर
इन्हें सड़क पर चलने से रोक दिया जाए
नेहरू चौक पर खड़ा कर दाग़ दिया जाए
पुलिस में दे दें या चकले में पर शहर की सड़क को साफ़ किया जाए
ये स्त्रियां हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर
ये इम्तिहान हैं हममें बची हुई शर्म का
ये मदर इंडिया हैं सही नाप लेने वाले दर्जी़ की तलाश में
कौन हैं ये
पता किया जाए.
काग़ज़
चारों तरफ़ बिखरे हैं काग़ज़ एक काग़ज़ पर है किसी ज़माने का गीत एक पर घोड़ा, थोड़ी हरी घास एक पर प्रेम एक काग़ज़ पर नामकरण का न्यौता था एक पर शोक एक पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था क़त्ल एक ऐसी हालत में था कि उस पर लिखा पढ़ा नहीं जा सकता एक पर फ़ोन नंबर लिखे थे पर उनके नाम नहीं थे एक ठसाठस भरा था शब्दों से एक पर पोंकती हुई क़लम के धब्बे थे एक पर उंगलियों की मैल एक ने अब भी अपनी तहों में समोसे की गंध दाब रखी थी एक काग़ज़ को तहकर किसी ने हवाई जहाज़ बनाया था एक नाव बनने के इंतज़ार में था एक अपने पीलेपन से मूल्यवान था एक अपनी सफ़ेदी से एक को हरा पत्ता कहा जाता था एक काग़ज़ बार-बार उठकर आता चाहते हुए कि उसके हाशिए पर कुछ लिखा जाए एक काग़ज़ कल आएगा और इन सबके बीच रहने लगेगा और इनमें कभी झगड़ा नहीं होगा .............................................................................
असंबद्ध
कितनी ही पीड़ाएं हैं जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं ऐसी भी होती है स्थिरता जो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं
ओस से निकलती है सुबह मन को गीला करने की जि़म्मेदारी उस पर है शाम झांकती है बारिश से बचे-खुचे को भिगो जाती है
धूप धीरे-धीरे जमा होती है क़मीज़ और पीठ के बीच की जगह में रह-रहकर झुलसाती है
माथा चूमना किसी की आत्मा चूमने जैसा है कौन देख पाता है आत्मा के गालों को सुर्ख़ होते
दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना एक ख़राब किस्म की कठोरता है ...................................................................................;
जिसके पीछे पड़े कुत्ते
उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी झूल रही थी कपड़े गंदे थे, हाथ में थैली थी... उसके रूप का वर्णन कई बार कहानियों, कविताओं, लेखों, ऑफ़बीट ख़बरों में हो चुका है जिनके आधार पर वह दीन-हीन किस्म का पगलेट लग रहा था और लटपट-लटपट चल रहा था और शायद काम के बाद घर लौट रहा था जिस सड़क पर वह चल रहा था उस पर और भी लोग थे रफ्तार की क्रांति करते स्कूटर, बाइक्स और तेज संगीत बाहर फेंकती कारें थीं सामने रोशनी से भीगा संचार क्रांति का शो-रूम था बगल में सूचना क्रांति करता नीमअंधेरे में डूबा अखबार भवन बावजूद उस सड़क पर कोई क्रांति नहीं थी गड्ढे थे, कीचड़ था, गिट्टियां और रेत थीं इतनी सारी चीजें थीं पर किसी का ध्यान उस पर नहीं था सिवाय वहां के कुत्तों के
वे उस पर क्यों भौंके क्यों उस पर देर तक भौंकते रहे क्यों देर तक भौंककर उसे आगे तक खदेड़ आए क्यों उसकी लटपट चाल की रफ्तार को बढ़ा दिया उन्होंने क्यों चुपचाप अपने रास्ते जा रहे एक आदमी को झल्ला दिया जिसमें संतों जैसी निर्बलता, गरीबों जैसी निरीहता ईश्वर जैसी निस्पृहता और शराबियों जैसी लोच थी किसी का नुकसान करने की क्षमता रखने वालों का एकादश बनाया जाए तो जिसे सब्स्टीट्यूट जैसा भी न रखना चाहे कोई ऐसे उस बेकार के आदमी पर क्यों भौंके कुत्ते
कुत्तों का भौंकना बहुत साधारण घटना है वे कभी और किसी भी समय भौंक सकते हैं जो घरों में बंधे होते हैं दो वक्त का खाना पाते हैं और जिन्हें शाम को बाकायदा पॉटी कराने के लिए सड़क या पार्क में घुमाया जाता है भौंककर वफादारी जताने की उनकी बेशुमार गाथाएं हैं लेकिन जिनका कोई मालिक नहीं होता उनका वफादारी से क्या रिश्ता जो पलते ही हैं सड़क पर वे कुत्ते आखिर क्या जाहिर करने के लिए भौंकते हैं ये उनकी मौज है या अपनी धुन में जा रहे किसी की धुन से उन्हें रश्क है वे कोई पुराना बदला चुकाना चाहते हैं या टपोरियों की तरह सिर्फ बोंबाबोंब करते हैं
ये माना मैंने कि एक आदमी अच्छे कपड़े नहीं पहन सकता वह अपने बदन को सजाकर नहीं रख सकता कि उसका हवास उससे बारहा दगा करता है लेकिन यह ऐसा तो कोई दोष नहीं प्यारे कुत्तो कि तुम उनके पीछे पड़ जाओ और भौंकते-भौंकते अंतरिक्ष तक खदेड़ आओ आखिर कौन देता है तुम्हें यह इल्म कि किस पर भौंका जाए और किससे राजा बेटा की तरह शेक हैंड किया जाए जो अपने हुलिए से इस दुनिया की सुंदरता को नहीं बढ़ा पाते ऐसों से किस जन्म का बैर है भाई यह भौंकने की भूख है या तिरस्कार की प्यास या यह खौफ कि सड़क का कोई आदमी तुम्हारी सड़क से अपना हिस्सा न लूट ले जाए
जिसके पीछे पड़े कुत्ते उसे तो कौम ने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया था उसे दो फलांग और छोड़ आना किसकी सुरक्षा है
उसके हाथ में थैली थी जिसमें घरवालों के लिए लिया होगा सामान वह सोच रहा होगा अगले दिन की मजदूरी के बारे में किसी खामख्याली में उससे पड़ गया होगा एक कदम गलत और तुम सब टूट पड़े उस पर बेतहाशा जिस पर व्यस्त सड़क का कोई आदमी ध्यान नहीं देता फिर भी हमारे वक्त के नियंताओं के निशाने पर रहता है जो हर वक्त कुत्तो, तुम भी उस पर ध्यान देते हो इतना कि वह उसे निपट शर्मिंदगी से भिड़ा दे
और यह अहसास ही अपने आप में कर देता है कितना निराश कि जिसके पीछे पड़ते हैं कुत्ते वह उसी लायक होता है ........................................................................................;;
डेटलाइन पानीपत
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वाटरलू पर लिखी गई हैं कई कविताएं पानीपत पर भी लिखी गई होंगी कार्ल सैंडबर्ग ने तो एक कविता में घास से ढांप दिया था युद्ध का मैदान यहां घास नहीं है, यक़ीनन कार्ल सैंडबर्ग भी नहीं
किसी न किसी को तो दुख होगा इस बात पर कुछ युद्ध याद रखे जाते हैं लंबे समय तक कई उत्सव भुला दिए जाते हैं अगली सुबह मुझे पता नहीं पुरातत्ववेत्ताओं को इसमें कोई रुचि होगी कि खोदा जाए यहां का कोई टीला किसी कंकाल को ढूंढ़ा जाए और पूछा जाए जबरन तुम्हारे जमाने में घी कितने पैसे किलो था कितने में मिल जाती थी एक तेजधार तलवार
कुछ लड़ाइयां दिखती नहीं कुछ लोग होते हैं आसपास पर दिखते नहीं कुछ हथियारों में होती ही नहीं धार कुछ लोग शक्ल से ही बेहद दब्बू नजर आते हैं जो लोग मार रहे थे उन्हें नहीं दिखते थे मरने वाले हुकुम की पट्टियां थीं चारों ओर निगल जाती हैं रोशनी को
युद्ध के लिए अब जरूरी नहीं रहे मैदान गली, नुक्कड़ और मुहल्लों का विस्तार हो गया है कोई अचरज नहीं बिल्डिंग के नीचे लोग घूम रहे हों लेकर हथियार कोई अचरज नहीं दरवाजा तोड़कर घर में घुस आएं लोग
कुछ लोग हैं जो जिए जाते हैं उन्हें नहीं पता होता जिए जाने का मतलब कुछ लोग हैं जो बिल्कुल नहीं जानते एक इंसान के लिए मौत का मतलब
घास नहीं ढांप सकती इस मैदान को घास भी जानती है हरियाली पानी से आती है, खून से नहीं
युद्ध का मैदान अब पर्यटनस्थल है कुछ लोग घर से बनाकर लाते हैं खाना यहां अखबारों पर रख खाते हैं एक-दूसरे के पीछे दौड़ते हैं बॉल को ठोकर मारते अंताक्षरी गाते-गाते हंसने लगते हैं
कोई चीख किसी को सुनाई नहीं देती
बच्चे यहां झूला झूल रहे हैं वे देख लेंगे जमीन के नीचे झुककर एक बार यकीनन बीमार पड़ जाएंगे .........................................................................
इतना तो नहीं
मैं इतना तो नहीं चला कि मेरे जूते फट जाएं
मैं चला सिद्धार्थ के शहर से हर्ष के गांव तक मैं चंद्रगुप्त अशोक खुसरो और रजिया से ही मिल पाया मेरे जूतों के निशान डि´गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में हैं अभी कितनी जगह जाना था मुझे अभी कितनों से मिलना था इतना तो नहीं चला कि मेरे जूते फट जाएं
मैंने जो नोट दिए थे, वे करकराते कड़क थे जो जूते तुमने दिए, उनने मुंह खोल दिया इतनी जल्दी दुकानदार! यह कैसी दगाबाजी है
मैं इस सड़क पर पैदल हूं और खुद को अकेला पाता हूं अभी तल्लों से अलग हो जाएगा जूते का धड़ और जो मिलेंगे मुझसे उनसे क्या कहूंगा कि मैं ऐसी सदी में हूं जहां दाम चुकाकर भी असल नहीं मिलता जहां तुम्हारे युगों से आसान है व्यापार जहां यूनान का पसीना टपकता है मगध में और पलक झपकते सोना बन जाता है जहां गालों पर ढोकर लाते हैं हम वेनिस का पानी उस सदी में ऐसा जूता नहीं जो इक्कीस दिन भी टिक सके पैरों में साबुत कि अब साफ दिखाने वाले चश्मे बनते हैं फिर भी कितना मुश्किल है किसी की आंखों का जल देखना और छल देखना कि दिल में छिपा है क्या-क्या यह बता दे ऐसा कोई उपकरण अब तक नहीं बन पाया
इस सदी में कम से कम मिल गए जूते अगली सदी में ऐसा होगा कि दुकानदार दाम भी ले ले और जूते भी न दे?
फट गए जूतों के साथ एक आदमी बीच सड़क पैदल कितनी जल्दी बदल जाता है एक बुत में
कोई मुझसे न पूछे मैं चलते-चलते ठिठक क्यों गया हूं
इस लंबी सड़क पर कदम-कदम पर छलका है खून जिसमें गीलापन नहीं जो गल्ले पर बैठे सेठ और केबिन में बैठे मैनेजर के दिल की तरह काला है जिसे किसी जड़ में नहीं डाला जा सकता जिससे खाद भी नहीं बना सकते केंचुए यहां कहां मिलेगा कोई मोची जो चार कीलें ही मार दे
कपड़े जो मैंने पहने हैं ये मेरे भीतर को नहीं ढंक सकते चमक जो मेरी आंखों में है उस रोशनी से है जो मेरे भीतर नहीं पहुंचती पसीना जो बाहर निकलता है भीतर वह खून है जूते जो पहने हैं मैंने असल में वह व्यापार है
अभी अकबर से मिलना था मुझे और कहना था कोई रोग हो तो अपने ही जमाने के हकीम को दिखाना इस सदी में मत आना यहां खडि़ए का चूरन खिला देते हैं चमकती पुर्जी में लपेट
मुझे सैकड़ों साल पुराने एक सम्राट से मिलने जाना है जिसके बारे में बच्चे पढ़ेंगे स्कूलों में मैं अपनी सदी का राजदूत कैसे बैठूंगा उसके दरबार में कैसे बताऊंगा ठगी की इस सदी के बारे में जहां वह भेस बदलकर आएगा फिर पछताएगा मैं कैसे कहूंगा रास्ते में मिलने वाले इतिहास से कि संभलकर जाना आगे बहुत बड़े ठग खड़े हैं तुम्हें उल्टा लटका देंगे तुम्हारे ही रोपे किसी पेड़ पर
मैं मसीहा नहीं जो नंगे पैर चल लूं इन पथरीली सड़कों पर मैं एक मामूली, बहुत मामूली इंसान हूं इंसानियत के हक में खामोश मैं एक सजायाफ्ता कवि हूं अबोध होने का दोषी चौबीसों घंटे फांसी के तख्त पर खड़ा एक वस्तु हूं एक खोई हुई चीख मजमे में बदल गया एक रुदन हूं मेरे फटे जूतों पर न हंसा जाए मैं दोनों हाथ ऊपर उठाता हूं इसे प्रार्थना भले समझ लें बिल्कुल समर्पण का संकेत नहीं ..............................................................
नश्तर
(मराठी कवि स्व. भुजंग मेश्राम के लिए)
पीड़ाओं का विकेंद्रीकरण हो रहा है और दुख का निजीकरण दर्द सीने में होता है तो महसूस होता है दिमाग में दिमाग से उतरता है तो सनसनाने लगता है शरीर प्रेम के मकबरे जो बनाए गए हैं वहां बैठ प्रेम की इजाजत नहीं पुरातत्वविदों का हुनर वहां बौखलाया है रेडियोकार्बन व्यस्त हैं उम्रों की शुमारी में सभ्यताओं ने इतिहास को कांख में चांप रखा है आने वाले दिनों के भले-बुरेपन पर बहस तो होती ही है मरे हुए दिनों की शक्लोसूरत पर दंगल है तीन हजार साल पहले की घटना तय करेगी किसे हक है यह जमीन और किसके तर्क बेमानी हैं कौन मजबूर है कौन गाफिल किसने युद्ध लड़ा आकाश में कौन मरा मुंबै में बरसों सोच किसने मुंह से निकाले कुछ लफ्ज एक साथ एक अरब लोगों की रुलाहट बाद उसके कानों पर वह कौन-सी जूं है जिसे बेडि़यां बंधीं किन किसानों ने कीं खुदकुशियां वीटी की एक इमारत ने किया लोगों को रातोरात खुशहाल कितने कंगाल हुए भटक गए हरे पेड़ों की तरह जला दिए गए लोग जबरन माथे पर खोदे गए कुछ चिह्न तुलसी के पौधों पर लटके बेरहम सांपों की फुफकार लाचार घासों को डसने का शगल इस तरफ कुछ लोग आए हैं जो बड़े प्रतीकों-बिंबों में बात करते हैं इसकी मजबूरी और मतलब मालूम नहीं पड़ता बताओ, दिल पर नहीं चलेंगे नश्तर तो कहां चलेंगे ...........................................................................
सुब्हान अल्लाह
रात में हम ढेर सारे सपने देखते हैं सुबह उठकर हाथ-मुंह धोने से पहले ही भूल जाते हैं हमारे सपनों का क्या हुआ यह बात हमें ज्यादा परेशान नहीं करती हम कहने लगे हैं कि हमें अब सपने नहीं आते हमारी गफलत की अब उम्र होती जा रही है हम धीमी गति से सड़क पार करते बूढ़े को देखते हैं हम जितनी बार दुख प्रकट करते हैं हमारे भीतर का बुद्ध दगाबाज होता जाता है मद्धिम तरीके से सुनते हैं नवब्याही महिला सहकर्मी से ठिठोली जब पता चलता है शादी के बाद वह रिश्वत लेने लगी है हमारे भीतर एक मूर्ति के चटखने की दास्तान चलती है वे कौन-सी चीजें हैं, जिनने हमें नजरबंद कर लिया है
हम झुटपुटे में रहते हैं और अचरज करते हैं अंधेरे और रोशनी में कैसा गठजोड़ है
हमारे खंडहरों की मेहराबों पर आ-आ बैठती है भुखमरी हमारे तहखानों से बाहर नहीं निकल पाती छटपटाहट पानी से भरी बोतल में जड़ें फैलाता मनीप्लांट है हमारी उम्मीद हम सबके पैदा होने का तरीका एक ही है हम सब अद्वितीय तरीकों से मारे जाएंगे, तय नहीं कौन-सी इंटीग्रेटेड चिप है जो छिटक गई है दिमाग से क्या हमारे जोड़ों को ग्रीस की जरूरत है?
अपनी उदासी मिटाने के लिए हममें से कई के शहरों में होता है कोई पुराना बेनूर मंदिर, नदी का तट समुद्र का फेनिल किनारा या पार्क की निस्तब्ध बेंच या घर में ही उदासी से डूबा कोई कमरा होता है अलग-थलग जिसकी बत्तियां बुझा हम धीरे-धीरे जुदा होते हैं जिस्म से
हम पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी हिस्से में साध सकते हैं संपर्क तुर्रा यह कि कहा जाता है इससे विकराल असंवाद पहले नहीं रहा
कुछ लोगों को शौक है बार-बार इतिहास में जाने का दूध और दही की नदियों में तैरने का उन्हें नहीं पता दूध के भाव अब क्या हो रहे हैं वे हमारी पशुता पर खीझते हैं उन्हें बता दूं ये बेबसी हमारे लिए सिर्फ गोलियां बनी हैं बंदूक की और दवाओं की
फिर भी वह कौन-सी खुशी है जो हमारे भीतर है अभी भी कि हर शाम हम मुस्कराते हैं अपने बच्चों को खिलाते हैं और दरवाजा बंद कर सो जाते हैं
कुछ आड़ी-तिरछी लकीरों और मुर्दुस रंगों वाले मॉडर्न आर्ट सरीखे अबूझ चेहरों पर नाचता है मसान का दुख चिता