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तुम्हारे नाम / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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जाह्नवी के किनारे-किनारे
मंद-मंद
पाटल की बौराई नूतन गंध
प्राणों की मीरा
तुम्हें रोज-रोज टकटकी लगाकर
देखते रहने में भी
मेरी आँखें
क्यों नहीं दुखती हैं

तुम्हारा यह अगाध सौन्दर्य
तुम्हारा यह अपरिमित रुप
इतना असीम है
कि लगता है
तुम्हीं में व्याप्त है
सुकुमार सृश्टि का अंग-अंग
पाटल की बौराई गंध
मेरे प्राणों की मीरा
तभी तो-
मैं सदा तुम्हें खोजता रहा हूँ

अनन्त आकाश में
टिमटिमाते हुए तारों के बीच
पठारी के कोने से
छिपी चली आ रही
नदियों की विरल धारा में
तुम किस-किस में नहीं हो
कहाँ-कहाँ नहीं हो तुम
क्या क्या तुममें नहीं हैं
इसी से तो
अब तक
तुम्हें चाह कर भी
नहीं बांध पाया हूँ
किसी एक संबोधन की सीमा में
तुम कभी भी
नहीं अट पाई हो
मेरे संबोधन और शब्दों की सीमा में
और मैं व्याकुल रहा हूँ
तुम्हें संबोधनों में नहीं अटते देखकर
जैसे कि एक बच्चा
अपने नन्हें हाथों में
ढेर सारे चमचमाते सिक्कों को
बांध लेने की कोशिश में असमर्थ
व्याकुल बना रहता है
बस एक स्थिति बनी रहती है
सूरज को एकटक
सूरजमुखी का चुपचाप देखते रहना
उसके होने तक
और फिर अंधेरा होते ही
तुम्हारा मेरे पास नहीं होने के भय से

मैं तुम्हें पूछ बैठता हूँ
फिर यह सब कब ?
और तुम मेरे प्रश्न पर
चौंक सी जाती हो
पिछले कई दिनों की तरह

पिछले कई दिनों की तरह ही
मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय
मेरी आंखों को
अपनी नूतनाई आंखों से
देखती रहती हो
और मैं भी तुम्हारी आँखों को
दोनों के ओठ सिले होते हैं
हाँ, प्रेम में
बन्द ओठ की
गहरी चुप्पी को छोड़ कर
किसी प्रश्न का उत्तर
और क्या हो सकता है

तुम्हीं कहो
क्या चुप हो रहना
प्यार की सबसे सुन्दर परिभाशा नहीं

फिर भी
मैं चुप क्यों नहीं रह पाता हूँ
क्यों मैं छटपटाता रहता हूँ
अपने प्यार को
एक नाम देने के लिए
मगर दे नहीं पाता

तुम भी तो ऐसा नहीं कर पाती हो
सब कुछ तो मेरे अनुकूल है
तुम्हारी नूतन हँसी
तुम्हारा नूतन संकेत
मुुझे सूरज के पार
बादलों के लीला भरे नूतन गाँव में
पहुँच जाने का संकेत
पर मैं वहाँ पहुँच क्यों नहीं पाता हूँ
मेरे प्राणों की मीरा
इतिहास की मीरा क्यों नहीं हो पाती
‘पग घुँघरु बाँध मीरा नाची रे
लोग कहे मीरा हो गई बाबरी’

तुम बाबरी क्यों नहीं हो पाती हो
बाबरी हो जाओं तुम
मैं भी बाबरा हो गया हूँ
तुम्हारी आँखों के
इस नील नूतन सागर में डूबकर

तुम न जाओ
मुझे डूबे ही रहने दो
हाँ मुझे डूबे ही रहने दो
चंचल मुग्ध मीन बनकर
अपनी आँखों के
नील नूतन सागर में