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अंधेरी घाटियों के बीच(कविता) / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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चारो तरफ पर्वतों का
वही लम्बा सिलसिला
निर्जन, नीरव, अनजान
मैं अपने आप को
अंधेरी घाटियों के बीच पाता हूँ
जिसकी पथरीली सतहों को
छेद कर उग आए हैं
लंबे ऊँचे पेड़
और जहाँ पर
बर्फीली हवा की चोट
खा-खा कर
गिरे पत्ते
सड़ने लगे हैं

घाटियों की जगह-जगह पर
जंगली भेड़ियों की फुसफुसाहट
कैसे-कैसे जानवरों का शोर
सुरसा की तरह फैला हुआ है
जिसे सुन कर
भय

मेरे मन के कोने तक
पसर जाता हैं
और एक अनचाही चीख
मेरे मुँह से निकल पड़ती है
मेरी काँपती आँखें
जिधर भी देखती हैं
उधर ही पिघले कोलतार सी फैली
घाटियाँ
और घाटियों के बीचोबीच
अंधेरा
फैला हुआ है
मेरे पाँवों के आसपास
रेंगते जन्तुओं की सरसराहट
जाने कब से हो रही है
शब्दहीन हो गई है मेरी आत्मा
लकवा मार गया है संकेतों को
मैं अपने बचाव में
हिलडुल भी नहीं पा रहा हूँ
एक मजबूत जबड़े में
अपने को
फंसा हुआ पाता हूँ

जंगल की फुसफुसाहट
धीरे-धीरे अब भयानक शोर में
बदलने लगी है
और घाटियों की जगह-जगह पर
ज्वालामुखी के मुँह
निकल आये हैं
जिनसे आग

रह रह कर निकलने लगी है
धरती हिलने लगी है
कहीं पर भी कोई
बचाव का रास्ता नहीं दिखता
कोई भी मेरा कुछ नहीं सुनता
लगता है
सब मेरे विरुद्ध
लगे हुए हैं
जैसे संसद तक आते-आते
भारी विरोध के बावजूद
आपसी मनमुटाव को भूलकर
अपने हित के मुद्दे पर
सारे दल एक हो गए हैं
व्यर्थ है
इस तरह से खड़े होकर
सिर्फ इनका खौफनाक तमाशा
देखते रहना
बार-बार मरने से
बेहतर है
एक बार मरना
कान पकने लगे हैं
जंगलों का अट्टहास सुनते-सुनते।
अब मुझे
इस अंधेरी घाटियों में
अकेले ही कुछ करना होगा
मारना होगा
या खुद ही मरना होगा