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अन्तहीन यातना / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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कानून
अदालत
सब शकुनी की चाल है
न्याय को फांसी पड़ने के बाद
दूसरा नम्बर मेरा है
मेरा अपराध बस इतना है
कि मैं निरपराध हूँ
मैंने उनका साथ नहीं दिया
जो घर को अदालत
अदालत को घर समझते हैं
इसलिए तो
उनलोगों ने
इन दोनों से अलग
इस जेल को मेरे लिये
घर बनाया है
जेल
यानी कि धरती का नरक
जेल के जीवन से
बेहतर है फांसी
बेहतर है
आँखों पर पट्टी बाँध कर
मोटी रस्सी से लटक जाना

मैं लटक भी गया तो क्या
क्या इस दूसरे नम्बर के बाद
जेल खाली हो जायेगा
रस्सी किसी की गर्दन में
नहीं पड़ेगी
नहीं नहीं
यह जेल कभी नहीं खाली होगा
रस्सियों पर
गर्दनें यूँ ही झूलती रहेंगी
जब तक कि
मौजूदा व्यवस्था की नजर में
निरपराध लोग (?)
अपराधियों (?) को
इस लाल नरक में भेजते रहेंगे
तब तक जेल आबाद होता रहेगा
रस्सियों पर
तीन नम्बर
चार नम्बर
और पाँच नम्बर
यूँ ही कबूतर की तरह
फड़फड़ाते रहेंगे
जिसकी गर्दन
तोड़ने वाली अंगुलियों में
फंसी हो।