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अमरेन्द्र से शिकायत / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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मैं जानता था मेरे मित्र
कि तुम चले ही जाओगे
और तुम चले गये
मेरी आँखों में अँधेरा करते हुए
तुम्हें गाँव की मिट्टी ने
जब भी बाँधना चाहा है
तुम्हारा मन पुरुरवा की तरह
बार-बार उड़ गया है आकाश में
तुम नगर की तरफ दौड़े हो
मेरे मित्र ! अब मैंने यह जान लिया हैं
कि खेत की मेढ़ पर
यूँ ही तुम्हारा घन्टों बैठे रहना
‘अबकी ऐबा तेॅ लानियोॅ सिंगार सोलहो’
गुनगुनाना, फसलों को टकटकी बाँधे देखते रहना
और कभी पड़ोकी की आवाज को
बेसुध बने सुनते रहना
घाटियों में प्रतिध्वनित होती
मित्रों की हँसी
ये सब तुम्हारे लिये
कुछ वैसे ही थे
जैसे राजा जनक के प्रासाद में
भोग समारोहों का होना
और इनके बीच तुम्हारा होना
जनक के होने के समान था।
यह बात मुझे कितनी साल रही है !