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बाढ़ / दिनेश श्रीवास्तव

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बाढ़- तीन प्रतिक्रियाएं

एक

पहले तो मूसलाधार वृष्टि आयी
और मेरा माटी का घर माटी में मिला गयी
और फिर आया सैलाब
और बहाकर ले गया
गाय, बैल, खटिया, छान.

किसी तरह तैर कर
चढ़ कर के पेड़ पर
जान बचाई.

अब तो आते ही बाढ़
मैं शाखामृग बन जाता हूँ.
और जीवन के विकास की
प्रक्रिया फिर शुरू हो जाती है.


दो.

सुनते हैं,
एक थे मनु
और एक थे भगवान.
जब बाढ़ आयी
तो मनु को बचाने के लिए
भगवान् मछली बने थे
आज जब बाढ़ आती है
तो हेलीकाप्टर में टोपी घूमती है
जो भीग जाने के भय से
नीचे नहीं आती.

(प्रकाशित, विश्वामित्र, १९.८.१९७९)


तीन.

हम बैठे थे शांति से
यह माने हुए कि
हम सुखी हैं.
हमारी आँखों में
अतीत कि यादें थीं
भविष्य के सपने थे
बीते कल की गलतियों का
एहसास था, और थीं
आगामी कल के लिए
योजनाएं.
पर हम यह भूल गए थे
कि हम एक बाँध के
किनारे रहते थे.
और उस बाँध को बनाने में
सीमेंट का नहीं
बालू का इस्तेमाल हुआ था.
और छोटे छोटे स्वार्थों की
पूर्ति के लिए
उस पर विज्ञान तथा
टेक्नोलॉजी के नियमों को
तिलांजलि दी गयी थी.

लेकिन
विज्ञान के नियम
इंजीनियरों, ओवरसियरों,
ठेकेदारों और मंत्रियों
को मिले हिस्सों
की परवाह नहीं करते.
और
पानी के प्रवाह को
बालू के ढेर नहीं
रोक सकते.
सो
बाँध बह गया.
और हम सबने
जल समाधि ले ली.

बाँध के नैसर्गिक
भाग्य विधाता
राजधानी में बहती
सत्ता की धारा में
नौका विहार करते रहे.
हम डूबते रहे
और हमारे बच्चे
बहते पानी में
बुलबुले छोड़ते रहे.

हम यीशु नहीं हैं.
हम तो साधारण होमोसैपियन हैं.
अतः हम क्षमा न कर पाएंगे.
नीरो के इन नवीनतम
संस्करणों को.

हमें मालूम है कि
हमारी लाशों के सड़ जाने के बाद
हमारे कंकालों के ढेर पर
तुम जांच आयोग बैठाओगे.
पर यह खानापूर्ति
हमारे प्रेतों की
स्मृति धूमिल
नहीं कर पाएगी.
और बहते पानी पर
हमारे बच्चों द्वारा
छोड़े गए बुलबुलों की याद
उन्हें स्थिर न रहने देगी.

और एक दिन हमारी समाधियों पर
जो कांस उगेगी-
वो सत्ता के मद में
भूले शासकों
वही तुम्हारे लिए
काफी होगी.

(प्रकाशित , विश्वामित्र, २६.८.१९७९)