भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फ़सलें देती हैं आवाज़ / ब्रजमोहन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:47, 16 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
फ़सलें देती हैं आवाज़
खेत हैं लेते अँगड़ाई
बुलाता है गाँव चल तू भी...
शैतानों को पाँव तले अब रौन्द रहा इनसान
धरती बोल रही
बिजली की गर्जन की भाँति कौन्ध रहा इनसान
धरती बोल रही
भय से थर-थर काँपे ताज... खेत ...
लपटों में बदला है देखो सारा ख़ून-पसीना
धरती डोल रही
खड़ा सामने बन्दूकों के हर फ़ौलादी सीना
धरती डोल रही
मौत से लड़ते हैं जाँबाज़ ... खेत ...
आग लगी बहियों में देखो उड़ता कितना ख़ून
धरती खोल रही
देखो जँगल का टूटा है हर जँगली कानून
धरती खोल रही
बदलता जीने का अन्दाज़ ... खेत ...