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तुम मुझे प्रिय हो कवि / सुरेश चंद्रा

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प्रिय कवि ...

नहीं होती एक कोई, रचना सर्वोत्तम ...
नहीं ही होता, सर्वश्रेष्ठ कोई एक कवि ...

तुम मुझे प्रिय हो कवि ...

समूचे के समूचे, अंतर यातना में ...
अपने विषय, विश्लेषण, विवेचना मे ...
प्रबोधक-प्रहार या प्रपंच-परिक्रमा मे ...
... द्वंद, संताप, पश्ताचाप, प्रार्थना मे ...

निश्चिन्त रहो कवि ...

तुम्हारे शब्दों से पृथक ...
मैं समझता हूँ, तुम्हें ...
... आखर-आखर धुंध मे ...
विलीन होती ...
अभिव्यक्ति तुम्हारी ...
अपेक्षाओं के नभ मे ...

और 'होम' होते हुए तुम ...
शब्द-शब्द आत्म-संज्ञान मे ...

सच है, कवि ...
शब्द केवल, उत्प्रेरक हैं ...
... मर्म, समवेदनाएँ, सहानुभूति, सिहरन तक ...

क्षणभंगुरता के पार ...
शब्द अंततः इन्द्रजाल हैं ...
... कलम की नोंक पर सतत समग्र सवाल हैं ...

तुम मुझे प्रिय हो कवि ...
किंचित मुझसे ही तो हो तुम ...
आतुर, आशंकित, आकुल ...
अविराम, व्यथित, व्याकुल ...
शांत, स्थिर, तृप्त, मृदुल ...
... एक ही समय मे, लय मे ...

साधु, शैतान, सब्र, और संकीर्णता से ...
निबटते हुए, निजता से, कुशलता से ...
अपने भीतर के सब किवाड़ धकेल कर ...
... निकल आते हो, संदिग्ध सरलता से ...

प्रयास का सम्मान बड़ा होता है ...
तुम शब्दों से कितना ही गहरा ...
कोहरा, भेद दो, रचो कालजयी ...
... मुझे सदैव तुम्हारा, तुम्हारे भीतर से ...
उबर आने का प्रयास प्रिय है ...
मुझे प्रिय हूँ मैं, और ...
... 'तुम' मुझे ... प्रिय हो कवि ... ... ... !!