भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आधी ज़िंदगी बीत जाने के बाद / सुरेश चंद्रा
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:28, 20 अक्टूबर 2017 का अवतरण
आईने के रंग, चटखने लगते हैं
चुभने लगता है, चेहरे का सच
बदन टोक देता है, मन की हर हरकत
पाँव पर बोझिल होती हैं, मुट्ठी भर ख़्वाहिशें
आधी रात, उम्र के हिसाब पर, चौंक उठती है नींद
घर लौटते, नुक्कड़ पर हाँफता है, एक थका-मांदा दिन
जिस्म को शाम की खूंटी पर टाँग कर, हंस देता है वजूद
ज़िंदगी के बीच वाले सफ़हे पर, आधी बची उम्मीद लिखता हुआ
वही सुबह वैसी नहीं रहती, नहीं रहती शाम भी उसी तरह की
कितना कुछ बदल जाता है, बस आधे ही सफ़र में
जकड़ती नसें, गड्ड-मड्ड कर देती हैं, आँखों की पुतलियाँ
हंसी दब कर रह जाती है, दायीं तरफ खिसक कर
बाईं तरफ का दर्द भी, मीठा नहीं रह जाता
पसीना यकलख़्त छलछला आता है, पेशानी पर
आधी ज़िंदगी बीत जाने के बाद.