भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहली निराशा / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 22 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिरुद्ध प्रसाद विमल |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँव के बाहर वाले
मंदिर के चबूतरे पर
हर सोमवारी को
सीमर पूजा के समय
डूबते सूरज
और उगते चाँद के
बीच के वक्त में
अरदसिया दिए
टकटकी लगाए

मुझे भर आँख देखने के लिए
खड़े रहने वाले मेरे मीत
आज तुम्हें उस जगह पर नहीं देख
कितनी निराश हो गई हूँ मैं
शायद तुम्हें याद न हो
भूल भी जा सकते हो तुम
कितनी बार तुम्हारे पूछने पर
मैंने कहा है
कि मैं सीमर पूजा के लिए नहीं
सिर्फ तुम्हें देखने के लिए
भर आँख निहारने के लिए
आती रही हूँ।

ओ मेरे प्राण !
आजतक
शिव मानकर मैं
सिर्फ तुम्हें ही पूजती आई हूँ
कि जब-जब शिव पर जल चढ़ाया है मैंने
तब-तब आँखों में तुम्हारी ही सूरत घूम गई है।

गठजोड़ में दुल्हा बनकर
तुम्हीं आए हो
हर वक्त साथ में

आज तुम नहीं आए हो
तो लगता है
सूना-सूना आकाश
सुनसान, व्यर्थ-सी यह संझौती बेला

किरणें निष्प्राण हैं
तुम्हारी साँवरी भी तो निष्प्राण है
व्यर्थ लगते हैं नयन वाण

देह में भरी हुई थकान है
ओठों पर टंगे हुए प्राण हैं
छिन गई मुस्कान अब
तारे भी मारते हैं तीर तान अब

सोचती हूँ
किसलिए सजी थी इतनी
गले में मोतियों की यह माला
कपाल पर का यह लाल गोल टीका
सबके सब उदास हैं
कितने निराश हैं

आज कितनी लगन से
सँवारी थी मैंने
अपनी यह सूनी-सी अजवारी माँग
जिसे देखकर बरबस कह उठते थे तुम
कि भर दूँगा मैं
सूनी इस माँग में प्यार के रंग
नहीं छोड़ूँगा संग
आज मेरा आना व्यर्थ हुआ प्रीतम
झाँझर के झन-झन
घंटा के टन-टन
तुम्हारे समीप रहने पर
कितने सुहाने लगते थे ये
पैर की पायलें झनकती थीं
कानों के झुमके सिहरते थे
कि हँसता था सारा जहान

और आज तुम नहीं हो
तो देखो ना
ये सभी मिलकर मुझे टीसते हैं
रुलाते हैं
अंग-अंग दुखाते हैं
ये सब मिलकर सताते हैं
लगता है सब ठठाकर मुझपर हँसते हों
कि सूखे पत्ते की तरह देह को जारते हों ।

मंदिर की दीवारें
आए सब लोग
कुछ नहीं दिखाई पड़ता है मुझे
तुम्हीं बताओ पिया
मंदिर की चौतरफा सीढ़ियों में से
किस सीढ़ी से होकर मैं जाऊँ
सभी सीढ़ियों पर तो भंक-ही लोटता है
लगता है सिर्फ साँप-ही-साँप हो
निराश अब मैं
लौट रही हूँ प्रियतम

तुम्हें याद होगा
किसी तरह तुम भूल नहीं सकते हो
कि जब मैं जाने की बात कहती थी
तो डबडबा उठती थीं तुम्हारी आँखें
और तुम कहते थे
कि जरा और देर ठहरो
पल-दो पल के लिए ही सही
लेकिन और ठहरो
........और इसी तरह मैं
कितने पलों के लिए रुक जाती थी

और तुम कभी मेरे उलझे बालों को सुलझाते थे
थकी जानकर अंग-अंग सहलाते थे
कभी अपने सर को मेरी जाँघों पर रखकर
न जाने क्या-क्या तुम सोचते रहते थे
क्या-क्या निरखते थे मेरे चेहरे में
क्या-क्या खोजते थे मेरी आँखों में
और कहते थे
कि तुम्हें निहारते मेरा मन किसी तरह क्यों नहीं भरता
कुछ भी पलों के लिए क्यों नहीं ये आँखें
वंचित होना चाहती हैं देखने के सुख से।

मुझे याद है
कि ऐसे में मैं तुम्हारी आँखों की गहराइयों में
बेसुध डूब जाती थी
क्या कहूँ मनमीत
तुम्हें एकटक उसतरह ताकते देखकर
तुम्हारी आँखों की गहराइयों की
थाह लेने की कोशिश में लगता
कि आकाश उलट कर कुआँ हो गया है
और पनघट पर खड़ी है साँझ साँवरी
अथाह जानते हुए भी
कूद जाने के लिए व्याकुल।

तुम्हें जरूर याद होगा
कि बेसुधी की ऐसी वेला में
सीमर पूजा के बाद
तुम मुझे अकेले ही छोड़कर जाने लगे थे
और तुम्हारे जाने के बाद मैं
उसी तरह ताकती रह गई थी
जिस तरह पश्चिमी आकाश में
डूब रहे लाल सूरज के मुँह को
एकटक ताकती है साँवरी साँझ
यह कहती हुई
कि फिर कब मिलोगे ?