डर / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
सुनो प्रियतम
मेरी आँखों का बरसना देख कर
सावन ने बरसना छोड़ दिया है
यही कारण है कि
नहीं बरसते हैं अब
सावन के ये मेघ।
सूखा ही रहता है यह पूरा सावन
और यह जो कभी-कभी
चाँद छिप जाता है मेघ से
जानते हो प्रियतम
यह क्या है ?
यह मेरी आँखों के बहते काजल हैं
और मेरे ही बिखरे केश
अगर मेघ होते
तो बरसते नहीं ?
लाचारी
तुम्हें क्या मालूम मेरे प्रियतम
घर में सबके सो जाने पर
डरती-छिपती ओहार और कोन्टा से होती
सबकी आँखों से अपने को बचाती
गाँव से कोस भर चल कर
इतनी दूर यहाँ आई हूँ मैं।
किसके लिए आई हूँ
तुम्हारे लिए ही न !
कि मेरे आते ही तुम बज उठोगे
बाँसवन की सिसकारी की तरह
और मुझे देखते ही दौड़ पड़ोगे
दोनों हाथ फैलाए, समेट लोगे मुझे
अपनी दोनों बाँहों में हमेशा-हमेशा के लिए।
मगर यह सब
कुछ भी न हुआ
सूखे ही रह गये अधर,
प्यासा ही रहा मन।
मेरी इच्छाओं पर पानी फेरने वाले मेरे मीत
आज यह विश्वास क्यों दम तोड़ रहा है कि
प्रत्येक महीना की पूर्णिमा की रात में हम दोनों
रात्रि की सुनसान खाली बेला में
इसी पीपल वृक्ष के नीचे
एक-दो सालों से नहीं
जाने कितने ही सालों से
क्षण-क्षण मिलते रहे हैं।
क्या हुआ जो तुम्हारे कहने पर भी
स्त्री होने की लाचारी के कारण ही
हाँ, कहने के बाद भी न आ सकी
प्रियतम, क्या तुम नहीं जानते हो
नारी का पूरा जीवन ही
मर्द के हाथों में गिरवी रखा होता है
कौमार्य में पिता, ब्याहने पर पुरुष
बुढ़ापे में पुत्र
आखिर परम्परा के इस बन्धन को कैसे तोड़ पाती ?
अगर यह हिम्मत मैं क्षण में ही नहीं जुटा पाई
तो इसी में मेरे प्यार !
तुमने मुझे झुट्टी कैसे मान लिया।
हाँ, मैं नही आ पाई लेकिन तुम भी तो
कितने ही दिन इसी तरह
कहकर भी नहीं आये हो
तो क्या हो गया अगर आज मैं ही न आ सकी।
कि बस इतनी-सी बात के लिए
तुम रूठ गये हो ।
तो आओ दण्ड दो मुझको
मैं तुम्हारी सारी मनमानियाँ मानने को तैयार हूँ।
लेकिन इस तरह मुझको न सताओ
न तड़पाओ
रिस-रिस कर मारो नही
मुझको रुलाओ नही ।
प्रेमोन्माद
यह मैं मानती हूँ कि
प्रेम घना होने पर ऐसा ही होता है,
व्यक्ति ज्यादा मान चाहता है
लेकिन यह तो कहो प्रिये
क्या यह चाह, यह तड़प, यह बदहाली
तुमसे मुझमें कम है ?
तब इस तरह से
मेरी परीक्षा लेने का क्या अर्थ ?
लेकिन, तब भी तुम्हारी ही
सचमुच में तुम्हारी ही बात रखने के लिए
मैं एक अकेली लड़की
रात की इस सुनसान निर्जन बेला में
चन्दन नदी पार कर
डर, लाज और भय को कांेची में समेट कर
इस पीपल वृक्ष के समीप आ गई हूँ
क्या कहूँ प्रियतम
नदी के कोस भर फैले बालू
उसी तरह उमताई मैं पार कर गई
जैसे हिरण अपनी कस्तूरी गंध से मतायी
बाघ के आगे से निकल जाए।
मैं अपना हाल क्या सुनाऊँ प्रियतम
चन्दन नदी के कछार पर पैर को रखते ही
लगा कि तुम बीच नदी में
पहले की तरह खड़े हो मेरी प्रतीक्षा में।
तेज चलती
एक, दो, तीन डेगों से ही
जब उस जगह पहुँची
तो हाहाकार कर उठे मेरे प्राण
पूरी देह एकबारगी ही सिहर गई
ऐसा लगा कि पूस की रात में किसी ने
बर्फीले पानी में धकेल दिया हो।
लेकिन, कहीं कुछ नहीं था
तुम तो खैर नहीं ही थे प्रियतम
पानी पर बस एक चांद था
और थी उसकी चांदनी
जो और कुछ भी नहीं
मेरे ही गुमसुम उदास आँसू से भीगे
मुँह की छाया भर थी।
मन करता था
उसी जगह से लौट आऊँ
लेकिन लाचार
मन ही क्या करता
जब पाँव ही नहीं मुड़े
नहीं लौट सकी मैं
नहीं लौट पाई
तुमसे मिलने की आकांक्षा
नहीं चाहते हुए भी
फिर-फिर घेर लेती है मुझे
तुम्हीं कहो प्रियतम
प्रेम से वशीभूत डूबा मन
किसका-किसका
कब-कब लौट सका है
और कौन-कौन लौट पाया है
प्रेम के ऐसे मदमाते क्षणों में ?
मुझे लगा
मेरी ही तरह उमताई
यह नदी भी बहती रही है
समय की छाती पर दौड़ती
धरती पर पसरती बिना थके
अपने पिया से लिपटने को व्याकुल।
साहस बांध कर एकबार फिर
आगे देखा और अबके ऐसा लगा
कि तुम पीपलवृक्ष की फेड़ी से सटे
खड़े हो मेरी आशा में
तुम्हारी उजली दकदक धोती
सावन की हवा से अठखेली करती
तुम्हारी मखमली कुर्त्ता
लम्बे बिखरे केश
मन मोहने वाली तुम्हारी हँसी
पगला देने वाली तुम्हारी छुवन
नहीं जानती
और कितनी-कितनी यादें आ गई
कि नाँच गई मेरी आँखों में
दौड़ कर अपनी बाँहों में मुझे उठा लेना
और बाँहों में ही करते मेरा वह परिरंभन
कैसे भूल जाऊँ वह रस-राग
गालों पर कटे दाँतों के दाग
सिहर उठी है यह देह
प्रियतम
खोजती हूँ फिर से तुम्हारा वही नेह।
क्या कहूँ मीत-
उस समय मैं कितनी शर्माई
जब नदी पार करने
ठेहुना तक उठाई थी साड़ी
तब सच कहती हूँ मेरे प्राण
धार में एक चरण धरते ही
घुटने भर
पानी में डूबा चाँद
ठठा कर हँस पड़ा।
जैसे कह रहा हो
सुनो साँवरी,
कहाँ चली जा रही हो उमताई हुई
किससे मिलने को ऐसी पगलाई हुई
कैसा जहान है ?
हाँ, किसको त्राण है !
जाओ, जाओ
अवश्य ही जाओ
मुझे भी वहीं जाना है
जहाँ जा रही हो तुम !
असमंजस
अब तुम्हीं बताओ मीत
मेरे प्राणों के प्राण
कौन मुँह लेकर
उसी राह से होकर
निराश लौट कर जाऊँगी मैं
पूछेगा तो क्या बताऊँगी मैं ?
निराशा से भरे
मेरे मलीन चेहरे को देख कर
क्या सोचेगा वह
कैसे, क्या उत्तर दूँगी मैं
किस तरह पार उतरूँगी मैं ?
किस तहर कह पाऊँगी
कि जिसके लिए मरती-हफसती
दुल्हन-सी सजी आई थी
वही मेरा मीत नहीं आया।
किसे कहूँ अपना यह दुख
किसको सुनाऊँ अपने मन की बात
कौन सुनेगा,
कौन पूछेगा
किसको फुर्सत है
हाँ सखी, चन्दन तो पूछेगी जरूर
ऐसे में तुम्हीं आकर बताओ मेरे प्रियतम
मैं उसे क्या कहूँ ?