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डर / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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आकर तो देखो मेरे प्राणपति
आज कितनी भयावह लगती है
पहाड़ की हँसी
कि आकाश हो गया है सुरसा का मुँह
यह इंजोरिया, जिसके हो दाँत
नदी के दोनों किनारे
जैसे, इसकी दो बाँहे
लगते हैं
सब मिल कर मुझे खा जायेंगे।
यह वही
गहराइयों और ऊँचाईयों वाला
जेठोर का पहाड़ है
जो तुम्हारे साथ रहने पर अपने पंख पसार
उन पर चढ़ा घुमाता था मुझे
और आज उसी पहाड़ को लगता है
हजारों-हजार हाथ निकल आये हैं
और नदी किनारे के सभी बाँस
उसके हाथों में बन गये हैं भालों की तरह
हवाओं में करचियाँ
नागों की तरह फुंफकारती हैं
लगता है
फनवाले हजारों नाग के भाले लिए
पहाड़ दौड़े चला आ रहा है
ऐसे में तुम नहीं हो तो मैं चाहती हूँ
कि यह आकाश उलट जाए और मैं
इसकी गहराई में डूब कर मर जाऊँ।