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लाचारी-2 / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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तुम्हें क्या मालूम मेरे प्रियतम
घर में सबके सो जाने पर
डरती-छिपती ओहार और कोन्टा से होती
सबकी आँखों से अपने को बचाती
गाँव से कोस भर चल कर
इतनी दूर यहाँ आई हूँ मैं।
किसके लिए आई हूँ
तुम्हारे लिए ही न !

कि मेरे आते ही तुम बज उठोगे
बाँसवन की सिसकारी की तरह
और मुझे देखते ही दौड़ पड़ोगे
दोनों हाथ फैलाए, समेट लोगे मुझे
अपनी दोनों बाँहों में हमेशा-हमेशा के लिए।

मगर यह सब
कुछ भी न हुआ
सूखे ही रह गये अधर,
प्यासा ही रहा मन।

मेरी इच्छाओं पर पानी फेरने वाले मेरे मीत
आज यह विश्वास क्यों दम तोड़ रहा है कि
प्रत्येक महीना की पूर्णिमा की रात में हम दोनों
रात्रि की सुनसान खाली बेला में
इसी पीपल वृक्ष के नीचे
एक-दो सालों से नहीं
जाने कितने ही सालों से
क्षण-क्षण मिलते रहे हैं।

क्या हुआ जो तुम्हारे कहने पर भी
स्त्री होने की लाचारी के कारण ही
हाँ, कहने के बाद भी न आ सकी
प्रियतम, क्या तुम नहीं जानते हो
नारी का पूरा जीवन ही
मर्द के हाथों में गिरवी रखा होता है
कौमार्य में पिता, ब्याहने पर पुरुष
बुढ़ापे में पुत्र
आखिर परम्परा के इस बन्धन को कैसे तोड़ पाती ?

अगर यह हिम्मत मैं क्षण में ही नहीं जुटा पाई
तो इसी में मेरे प्यार !
तुमने मुझे झुट्टी कैसे मान लिया।
हाँ, मैं नही आ पाई लेकिन तुम भी तो
कितने ही दिन इसी तरह
कहकर भी नहीं आये हो
तो क्या हो गया अगर आज मैं ही न आ सकी।
कि बस इतनी-सी बात के लिए
तुम रूठ गये हो ।

तो आओ दण्ड दो मुझको
मैं तुम्हारी सारी मनमानियाँ मानने को तैयार हूँ।

लेकिन इस तरह मुझको न सताओ
न तड़पाओ
रिस-रिस कर मारो नही
मुझको रुलाओ नही ।