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न लालच जनमता / ब्रजमोहन
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न लालच जनमता
न भूख बढ़ती
न जाते सजनवाँ विदेस रे
न खाने को आतीं
ज़माने की आँखें
न लगती कलेजवाँ में ठेस रे
न सपने बरफ़ की तरह गलते जाते
न हम पेड़ से टूटकर छटपटाते
न बाज़ों के साए में जीवन बिताते
हमारे भी ओंठों में वे मुस्कुराते
चमकती किनारी की साड़ी पहनकर
पिया हम भी तो भरते भेष रे ...
हवा जब गुज़रती है अनजान बनकर
जब काले बादल उड़ें सर के ऊपर
तब चिमनियों में नज़र आए हैं घर
जी करता है उड़ जाऊँ, पर हैं कहाँ पर
बिजली-सी मन पर गिरे जब पुलिस की
गोली के आएँ सन्देश रे ...
न पैसा पसीने की नदियाँ बहाता
न नदियों को सागर लहू के दिखाता
न इनसान इनसान को रौंद पाता
न घर छोड़ के कोई पैसा कमाता
बसन्ती हवाओं-सा घर मुस्कुराता
घर में महकता ये देश रे ...