हक़ / अनिल गंगल
मुझे हक़ दो कि अपने हक़ माँग सकूँ
मुझे मेरे हक़ चाहिए
मुझे अपने और सिर्फ़ अपने हक़ चाहिए
इतने बरस सोता रहा मैं कुम्भकर्णी नींद
उम्र के इतने बरस मैं भूला रहा अपने हक़
अब जागा हूँ
तो मुझे मेरे हक़ चाहिए
आपने मुझे गालियाँ दीं
मैं सोता रहा
आपने मुझे ठोकरें मारीं
मैं चुप रहा
आपने मुझे बेघर किया
मैं कुछ नहीं बोला
आपने मेरी लँगोटी छीन कर मुझे नँगा कर दिया
मैं और गाढ़ी नींद की सुरँग में गुम हो गया
अच्छा किया
जो आपने मुझे दशाश्वमेध की दिशा में ले जाने वाली
युगों लम्बी नींद से जगा दिया
अब पूरी तरह जाग चुका हूँ मैं
और माँगता हूँ आपसे अपने हक़
मगर मैं नहीं चाहता
कि मेरे पड़ोसी को भी उसका हक़ मिले
मैं नहीं चाहता
कि मेरी देखादेखी पड़ोसी भी हक़ के मामले में ख़ुदमुख़्तार हो
किसी भी हक़ से नहीं बनता पड़ोसी का कोई हक़
कि वह भी अपने हक़ की माँग करे
दावे से कह सकता हूँ मैं
कि मेरा लोकतन्त्र सिर्फ़ मेरे लिए है
जिसमें पड़ोसी की हक़ की माँग एकदम नाजायज़ है
आसाराम, राम-रहीम, फलाहारी
आप जिसकी चाहें उसकी क़सम मुझसे ले लें
कि सिर्फ़ मेरा अपने हक़ की माँग करना ही
इस नाजायज़ दुनिया में जायज़ है
भले ही पड़ोसी का हक़ न आता हो मेरे हक़ के रास्ते में
फिर भी यही सही है
कि मैं पूरी शिद्दत के साथ पड़ोसी का विरोध करूँ
वैसे पड़ोसी से मेरा कोई ज़ाती बैर नहीं
मगर विरोध के लिए विरोध करना तो
मुझे मिले लोकतन्त्र का तक़ाज़ा है
गँगापुत्र की तरह दोनों हाथ आकाश की ओर उठा कर
ऐलान करता हूँ मैं —
अपने लिए हक़ को छीन लेना
मगर दूसरों के द्वारा उसी हक़ की माँग पर अँगूठा दिखा देना ही
सच्चा लोकतन्त्र है।