भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किंछा / राकेश रवि
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:56, 2 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रवि |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatAngika...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
झड़ी-झकासोॅ सें, पूरवा वतासोॅ सें
गरीबोॅ के छूटै छै परान;
हाय राम केना केॅ मिलतै तरान?
गुहाली घरोॅ के परछत्ती
होलोॅ छै फूली केॅ ढोंस।
बचाबोॅ तोंय-जै, जै गणेश!
केना केॅ मिलेॅ सनेश?
पियो परदेश
एक्के टा घोॅर आरो
ठेना भर पानी छै
ओकरै में गैइयो के
भूसा आरो सानी छै
खटिया रोॅ ऊपरोॅ पर
कोकियैलोॅ नानी छै
लागै छै छुटतै हुनकोॅ परान।
झोंड़तेॅ झोॅड़
है हवा जे उठलोॅ छै
भूखोॅ सें
सब्भे पेट दावी केॅ बैठलोॅ छै।
आँखी में लोर मतर
सोचोॅ मंे पड़लोॅ छी,
हे भगवान, ठंडा सें
बचैइयोॅ बुढ़िया केॅ!
नै लीहौ अखनी तोंय जान।
हाय राम केना केॅ मिलतै तरान।
अबकी जों ऐतै तेॅ जावेॅ नै देवै
मिली-जुली केॅ याँही कमैवै
बाबुऔं समझैतै; हम्मू समझैवै
नै चाहियोॅ पक्का दलान!
हाय राम, केना केॅ मिलतै तरान।