पर्वत / राजीव रंजन
पर्वत के उस पार लगा वंसत का मेला है।
इस पार तो पतझड़, सूखे दरख्तों का रेला है।
सालों भर बस वहाँ वसंत का ही मौसम है।
पर्वत के इस पार हरदम परिस्थितियाँ विशम हैं।
कभी ठंड से किकुड़ता तो कभी गर्मी से-
झुलसता तो कभी पतझड़ में उजड़ता जीवन है।
यहाँ तो जीवन में कभी वसंत नहीं खिलता है।
कदम-कदम पर बस उजड़ा उपवन मिलता है।
न जाने वसंती-बयार कहाँ रुक जाती है?
इस पार वह कभी क्यों नहीं आती है?
शायद बीच में खड़ा पर्वत ही राहें रोक देता है।
आना चाहती है जो वसंती हवा इस पार-
उसका मुख मोड़ देता है।
पर्वत दिनों-दिन और ऊँचा होता जा रहा-
एवं पत्थर उसका और ज्यादा कठोर।
अब तो पर्वत आसमान से भी ऊँचा और
पत्थर उसका फौलाद से भी ज्यादा सख्त हो गया है।
उसके श्रृगों पर हवाएँ अब नहीं चढ़ पाती और
उसका शिखर अब बादलों को भी रोकने लगा है।
न जाने काल का चक्र कब घूमेगा और
समय रगड़ कर पत्थरों को इतना मुलायम
कर देगा कि वंसती-बयार उनमें सुराख
बना इस पार अपने साथ वसंत के कुछ
टुकड़े ले आएगी और रेगिस्तान सा
सूख रहे जीवन में नव-प्राण फूँकेगी।