भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चूल्हे की आग / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:24, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन |अनुवादक= |संग्रह=पिघल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जीर्ण-शीर्ण तृण के छप्पर से
झर-झर पानी झरते देखा।
खुशियों के बादल को हमने
आफत बन बरसते देखा
भींगी माँ की ममता को प्लास्टिक
के टुकड़ों से ढ़कते देखा।
तर-बतर जिंदगी, सैकड़ों छेदों
को दो हाथों से भरते देखा।
मिट्टी की दिवारों सा अरमानों
को तिल-तिल गलते देखा।
भींगे ठंडे चुल्हे की आग को
पेटों में सुलगते देखा।