भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पिघल रहा इंसान(कविता) / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:48, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पिघल रहा इंसान / राजीव रंजन |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जल रही धरती जल रहा आसमान है।
इसके ताप से अब पिघल रहा इंसान है।
कोमल मृदुल अंग सारे धीरे-धीरे गल रहे।
बच रहे हैं तो लौह और पाशाण के अवशेश।
जल रहा है वह हृदय जो आदमी के-
अन्दर इंसान को जिंदा रखता था।
साथ ही जल रहा उसका गीत सारा।
और सूख रही सरस संवेदना सारी।
बच रहे हैं सिर्फ कुछ रूखे-सूखे शब्द।
लौह-पाशाण अवशेशों में छिपा अपने को
लेकिन बच रहा है शातिर दिमाग।
जो संवेदनहीन रूखे-सूखे शब्दों से प्राण बना
लौह पाशाण अवशेशों को बना देगा
संवेदन शून्य आदमी।
जिंदगी में जगमगाहट की ख्वाहिश में
इसने ही यह आग अन्दर सुलगाई थी।
साजिशन यह आग चारों तरफ फैलाई थी।