भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरती का श्रृंगार / राजीव रंजन

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:57, 11 नवम्बर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुष्पगंध सुवासित मकरंद से स्निग्ध धरा का तन-मन।
सरस वसुधा पर आज जाग उठा विटप-तृण में भी जीवन।।
कुसुम, कली, वल्लियाँ सजी कनक प्रतिमा सी इसकी काया।
प्राण बनी हर जन-जीवन का आज वह फैला अपनी माया।।
ऊषा की लाली इसके रस-मग्न अधरों पर चमक रही।
हिम-सिक्त उज्जवल कुसुम सी काया आज दमक रही।।
सरिता-निर्झर का कल-कल बहता पानी, बढ़ी रवानी।
जैसे मही के अंग-अंग कुसमित सरसित चढ़ी जवानी।।
चिकुर बने काली घटा से हुलक रहे टिम-टिम तारे ऐसे।
नयी-नवेली दुल्हन के घूँघट पर सजे सहस्त्र सितारे जैसे।।
जलधि की उत्ताल तरंगों का ऐसा निनाद-स्वर।
जैसे थिरक रही धरा के पाँव के नुपूर की झंकार।।
अरूण रश्मियाँ बिखेर अपना ललाम रूप दान कर रहे।
खग-वृंद भी चहक कर आज मंगलगान कर रहे।।
प्रकृति देख अपनी ही शोभा सुध-बुध अपना खो रही।
धरती के इस रूप से, आज स्वर्ग को भी ईर्ष्या हो रही।।
शस्यपूर्ण धानी परिधान में आज धरती का अद्भुत् शृंगार।
आप्यायित कर रहा हर मन को निर्मल-निश्छल उसका प्यार।।
मंद-मंद मलायानिल का झोंका धरा का पट धीरे से खोल रहा।
स्वर्ग छोड़ धरती पर आने को आज देवों का मन भी डोल रहा।।
धुली-धुली चाँदनी में इसकी शोभा कैसी आज जग रही।
धरती आज सोलहों श्रंगार कर कितनी सुन्दर लग रही।।