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राख / राजीव रंजन
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रहस्य के आवरण में
इतिहास के संदूक में
छिपाया था जो खजाना
लगाया था उस पर
जो धर्म का ताला
दबाया था उसे सदियों अंदर
जिसे हवा भी न छू पाए
बताया था जिसे
कुबेर के खजाने से भी बहुमूल्य
था भरा जिसमें
कोहिनूर से भी ज्यादा तेज
जिसे देख सकती थी
सिर्फ महामानव की पवित्र आँखें
कहा गया इसके तेज को
सह नहीं सकती तुम्हारी अपवित्र आँखें
समय के झोंके ने
जब आज वह संदूक खोला
तो निकले उनसे बस
शब्दों के कुछ खाक और
काली-काली निस्तेज राख ।