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मरी बकरियाँ / राजीव रंजन

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आज तुंगी के सकरे पुल पर
एक औरत ले जा रही थी दो बकरियाँ
बेचने जमुआवां के मंगल-बाजार में।
पुल पर तेजी से गुजरते वाहन ने
उसकी बकरियों को कुचल दिया।
वह उन मरी बकरियों को
सीने से लगा दहाड़ मारकर रो रही थी,
इसलिए नहीं कि वे बकरियाँ
प्यारी थीं उसे अपने बच्चों जैसी,
बल्कि वह जानती थी उसकी कीमत।
वह तो खुद बेचने जा रही थी
उसे कसाई के हाथों,
जो अपनी रोटी के लिए उसे काट ही देता ।
उसकी साड़ी के पल्लू इसलिए गीले हैं
कि इस साल भी उसकी झोपड़ी
के छप्पर की मरम्मत नहीं हो पाएगी।
पिछले साल ही बरसात में भींगकर
बह गया था उसकी गोद से नन्हा सा प्राण।
इस साल भी अब इस बरसात में
भीगेंगे उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे,
साथ ही भींगेंगे टूटी पौती में
वर्षों से चपोत कर रखे सपने।
इतना ही नहीं, बल्कि गल जाएंगी
मासूम बच्चों की आँखों में
पक रही उम्मीदों की रोटी भी।