चतुर्वर्ग-सिद्धि / रामनरेश पाठक
आज मेरा गृह
चंदन, अगरू, धूप
तथा शाकल्य से अनुपवित्रित है
संस्कृति तुम! मानसरोवर से लौट आई हो!
तुम्हारे साथ अमित था, अनु!
(धर्म तुम्हारे खाते में जमा हुआ)
आज मेरा आमोद गृह
मद्य, स्वेद, शैथिल्य
और ब्रह्मानंद सहोदर से अनुषन्गित है
रति तुम! नृत्य मदालसा, श्रान्ता लौट आई हो!
तुम्हारे साथ का पुरुष रंजन था, अनु!
(काम-सिद्धि तुम्हें हो गयी)
कल या परसों मेरा यह विश्रामगृह
करुणा, वैराग्य, संगम
और क्षमा से अनुदीप्त हो जाएगा
त्यागमयी तुम! पांडिचेरी चली जाओगी
तुम्हारे साथ सुधीर होगा, अनु!
(मोक्ष तुम्हें मिल ही जाएगा)
(सुनो, अनु)
आज मैंने अपनी सारी संपत्ति तुम्हारे नाम कर दी है
इस क्षण के बाद मेरा यह कुटीर
दैन्य, विवशता, आभाव
और प्रश्नचिन्हों से प्रतीकित हो जाएगा
लालसामयी तुम! स्वामिनी हो जाओगे
तुम्हारे साथ मैं नहीं रहूंगा
मैं तो मात्र अर्थदाता था तुम्हारा
तुम्हारे साथ विनय होगा, अनु!
(अर्थ तुम्हें मिल ही गया)
एक प्रार्थना सुनो, अनु!
मेरी एक बात तो मानना
आनंद के धरातल तक तुम्हें पहुँचाने वाला
यह जो संवाहक सिंदूर है न!
उसे अब मत लगाना
एक सींक भर भी नहीं