भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लड़ा उम्र भर जेठ निरन्तर / धीरज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:04, 14 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरज श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
लड़ा उम्र भर जेठ निरन्तर पूस करे जी भर मनमानी!
उस पर बैठा मीत हृदय में उलच रहा आँखों का पानी!
अंगारो पर रात काटकर
जैसे तैसे खड़े हुए हैं!
शूलों पर ही चलते चलते
हम दुनिया में बड़े हुए हैं!
रोटी तक को बचपन तरसा खूब हुई हैरान जवानी!
उस पर बैठा मीत हृदय में उलच रहा आँखों का पानी!
सागर पार खुशी है बैठी
बाँट रही हैं पीर दिशाएँ!
कर्तव्यों ने कान उमेठे
बनके धूल उड़ी इच्छाएँ!
अंतरिक्ष के पन्नों पर बस लिखे ज़िन्दगी रोज कहानी!
उस पर बैठा मीत हृदय में उलच रहा आँखों का पानी!
सम्मानों ने सदा चिढ़ाया
भाग्य घूमता मुँह लटकाए!
साथ न छोड़ा किन्तु कर्म ने
पर अपनों ने भाव घटाए!
रोज हवाएँ जहर पिलातीं साँसे करतीं खींचा-तानी!
उस पर बैठा मीत हृदय में उलच रहा आँखों का पानी!